ओ3म् सहस्त्राह्णयं वियतावस्य पक्षौ हरेर्हंसस्य पततः स्वर्गम्।
स देवान्त्सर्वानुरस्युपदद्य संपश्यन् याति भुवनानि विश्वा॥ अथर्ववेद 10.8.18॥
ऋषि:-कुत्सः ॥ देवता-आत्मा॥ छन्दः-अनुष्टुप् ॥
विनय- मनुष्य प्रतिक्षण चेष्टायमान है। जीव को दिन-रात किसी-न-किसी अभीष्ट के पाने की चाह, या किसी के दुःख को हटाने की चाह लगी रहती है और उसके लिए वह सदा कुछ-न-कुछ करता रहता है। जीव को तब तक चैन नहीं मिल सकता, जब तक कि वह उस अवस्था में न पहुँच जाए, जहाँ उसे कुछ कमी न रहेगी, जहाँ उसकी सब कामनाएँ पूर्ण हो जाएँगी, सब दुःख समाप्त हो जाएँगे। उस स्वर्गलोक को पाने के लिए यह हरि (इधर-उधर फिरनेवाला) हंस न जाने कब से उड़ रहा है। यह अपने अभीष्ट लोक को कब पहुँचेगा? यह लगातार ज्ञान और कर्म के सहारे से उस स्वर्ग को न जाने कब से ढूँढ रहा है!
सुख-प्राप्ति के विषय में उसे जो ज्ञान मिलता है उसके अनुसार वह कर्म करता है, कर्म करने के बाद उसे कुछ अन्य नया अनुभव (ज्ञान) मिलता है, तो वह फिर उसके अनुसार कर्म करता है। इस प्रकार यह हंस अपने ज्ञान और कर्म (अन्दर से बाहर की ओर चेष्टा और बाहर से अन्दर की ओर चेष्टा, प्राण और अपान) के पंखों को हिलाता हुआ उड़ा चला जा रहा है। हजारों दिन बीत गये हैं पर उसके पंख फैले ही हुए हैं। न उसे अभीष्ट स्वर्ग मिलता है और न वह अपनी उड़ान बन्द करता है। पर मजेदार बात यह है कि स्वर्ग के सब देवों को, सब देव-गुणों को अजरत्व, अमरत्व, निष्कामत्व, पूर्णत्व आदि सब देवत्वों को अपने हृदय में लिये हुए फिर रहा है। वह लाखों योनियों में, लोकों में, नाना देशों में उड़ रहा है। इस जगत् की सब उत्पन्न वस्तुओं, सब भुवनों को देखता हुआ जा रहा है। पर सब देश तो उसके हृदय में ही स्थित हैं, अतः उसे जब कभी स्वर्ग की प्राप्ति होगी, तब उसे अपने हृदय में ही होगी। तब तक वह असंख्यात स्थानों में, प्रभु की इस अगम्य सृष्टि के करोड़ों भुवनों को देखता हुआ विचर रहा है, चौबीस घण्टे ज्ञान और कर्म की कुछ-न-कुछ चेष्टा करता हुआ स्वर्ग को ढूँढ रहा है, अपने इन पंखों को फड़फड़ाता हुआ निरन्तर गति ही कर रहा है। ओह! यह कब अपने लक्ष्य पर पहुँचेगा? किस दिन अपने पंखों को समेटकर बैठेगा? इसके पंख तो हजारों-हजारों दिनों से खुले हुए हैं!
शब्दार्थ- स्वर्गं पततः=स्वर्ग को जाते हुए अस्य=इस हरेः हंसस्य=ह्रियमाण या हरणशील, जीवात्मा हंस के पक्षौ=पंख सहस्त्राह्णयम्=सहस्त्रों दिनों से वियतौ=खुले हुए हैं, फैले हुए हैं सः=वह हंस सर्वान् देवान्=सब देवों को उरसि=अपने हृदय में उपदद्य=लिये हुए विश्वा भुवनानि= सब भुवनों को संपश्यन्=देखता हुआ याति=जा रहा है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग - अप्रैल 2019)
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