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वैदिक शिव, शिवतर और शिवतम

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पुराणों में देवासुर संग्राम और वैष्णवों का द्वन्द्व है। सत्ययुग में हिरण्यकश्यपु और प्रहलाद की कथा, त्रेता में रावण और राम की कथा शैव और वैष्णवों के पारस्परिक संघर्ष की सूचक है।

पौराणिक कल्पना के अनुसार शिव कैलाश पर्वत पर रहता है, हिमालय की पुत्री पार्वती से पाणिग्रहण करता है, दाएं हाथ में त्रिशूल धारण करता है और वाम हस्त में डमरू। सिर पर गंगा है, मस्तक पर अर्धचन्द्र है, तीन नेत्र हैं, सवारी नादिया अर्थात् वृषभ है, गले में मुण्डमाल है, बाघाम्बर धारण किया हुआ है, सर्पों का यत्रतत्र बन्धन है। देवों के कष्ट दूर करने के लिये विषपान कर नीलकण्ठ नाम पाया, इत्यादि शिव विषयक किम्वदन्तियां प्रसिद्धि पा चुकी हैं।

अब शिव के वास्तविक स्वरूप पर विचार किया जाता है। हमारी संस्कृति अध्यात्म प्रधान है। जहाँ संसार की विभिन्न संस्कृतियाँ भोग प्रधान है, वहाँ भारतीय संस्कृति त्याग प्रधान है। आध्यात्मिकता में योग का विशेष महत्व है। योगी ही सच्चा शिव है।

योगी भी कैलाश पर निवास करता है। पर्वत दृढ़ता का प्रतीक है। पर्वत व्रत का प्रतीक भी है। कैलाश परोक्ष रूप है, इसका प्रत्यक्ष रूप कीलाश है। संस्कृत साहित्य में कीलाश=अमृत और अश=भोजन को कहते हैं। अर्थात् योगी अमृत भोजी होते हैं। इस भोजन में वे चातक व्रती हैं। वे अमृत भोजन पर पर्वत के समान दृढ़ हैं। वे मृत्यु के रहस्य को उद्घाटित करना चाहते हैं।

उस दृढ़ता से योगी आगे बढ़ता है। उसकी साधना में अनेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं, अनेकों सिद्धियाँ आगे आकर खड़ी हो जाती है। योगिराज श्रीकृष्ण के शब्दों में-
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्थाः अर्थेभ्यश्‍च परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिः, यो बुद्धेः परतस्तु सः॥
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा, संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो, कामरूपं दुरासदम्॥
अर्थात् इन्द्रियों से सूक्ष्म इन्द्रियों के विषय हैं, उनसे भी सूक्ष्म मन है और मन से भी सूक्ष्म बुद्धि है तथा बुद्धि से भी सूक्ष्म काम है। इसलिये हे अर्जुन! कामरूपी महान् शत्रु से मोर्चा ले। योगी अपने मस्तिष्क के विशुद्ध विचारों द्वारा कामरूपी महाशत्रु को भस्म कर देता है। योगी कामासक्त नहीं होता।
त्रिशूल, नादिया, मुण्डमाल- संसार में तीन प्रकार के दुःख हैं, जिनके अन्तर्गत समस्त दुःखों का समावेश होता है- आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक। इन दुःखों से छुटकारा पाने में योगी भरसक प्रयत्नशील और अत्यन्त पुरुषार्थी होता है-अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्त पुरुषार्थः। (सांख्यदर्शन) तीनों प्रकार के दुःखों को दूर करना ही अत्यन्त पुरुषार्थ है। वे तीनों दुःख योगी के शरीर, मन और आत्मा को छोड़ भाग जाते हैं। सच्चा योगी संसार को अभय कर देता है।

‘नादिया’ नाद का अपभ्रंश रूप है। नाद ध्वनि को कहते हैं। योगी नाद पर आरूढ़ रहता है। वह ‘ओ3म्’ नाद का प्रेमी होता है। योगदर्शनकार महायोगी महर्षि पतञ्जलि के शब्दों में- तस्य वाचकः प्रणवः, तज्जपतस्दर्थभावनम्। अर्थात् योगी प्रणव का जाप करता है। यही उसके पास वषभ हैं। ‘वृषभो वर्षणात्’ जो सुखों की वर्षा करता है।

इस विषय में दूसरा विचार यह है कि योगी अपने श्‍वास-निश्‍वास को अजपा-जाप के रूप में प्रयुक्त करता है। आत्मा को वेदों में ‘हंस’ कहा है, जैसे- हंसः शुचिषद्.....अर्थात् आत्मा शुद्ध होने के कारण हंस है। हंसः हंसः हंसः इस प्रकार जाप की सन्धि हंसो हंसो हंसो है। इसका उल्टा रूप सोहं सोहं सोहं है। यही तो ‘उल्टा नाम जपा जग जाना वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना’ है। यह आत्मा (शिव) श्‍वास-प्रश्‍वास प्रणाली में (सोहं सोहं सोहं) का जाप करता है और इसी नाद पर स्थिरता को धारण करता है। यही बात ईशोपनिषद् में सुन्दर ढंग से वर्णित की गई है- पुष्न्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य ब्यूह रश्मीन् समूह। तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुषः सोहमस्मि।

यः असौ पुरुषः सः अहम् अस्मि=जो, असौ=प्राण में, असौ=यह, पुरुषः=पुरुष है। सः वह, अहम्=मैं अस्मि=हूँ। यह ‘सोहम्’ नाद आत्मा का अजपा जाप है, जो प्रतिक्षण निरन्तर चलता रहता है। (असु=असौ=सप्तमी)।

योगी अपने अतीत जन्मों को जान लेता है कि मैंने कौन-कौन से शरीर धारण किये। बिना शिर का शरीर कभी पहचाना नहीं जा सकता। इसलिए शरीरमाल न कहकर मुण्डमाल कहा है। वह अनेक जन्मों की शरीर धारण क्रिया को पहचान लेता है, यही उसका मुण्डमाल धारण करना है। योगीश्‍वर कृष्ण के शब्दों में-
बहूनि मे व्यतीतानि तव जन्मानि चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप॥
हे अर्जुन। मेरे और तेरे बहुत जन्म व्यतीत हो चुके। पर मैं तो उनको जानता हूँ, तू नहीं जानता।

भस्म, गंगा, चन्द्र- प्रत्येक योगी शरीर और आत्मा के सम्बन्ध को भली प्रकार पहचान लेता है। वह जान लेता है- अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता शरीरिणः। इस शरीर का देह नाशवान् है, यह जान वह इस शरीर का राग छोड़ देता है। योगी ‘भस्मान्तं शरीरम्’ का महत्व पहचान लेता है और इस शरीर को आत्मा के ऊपर लिपटी हुई भस्म ही समझता है। वह भस्म-यज्ञ को छोड़कर अध्यात्म यज्ञ प्रारम्भ कर देता है।

योगी के मस्तिष्क में ज्ञान गंगा हिलोरें मारती है। वह परमगुरु परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ता हैं और उसके ज्ञान को धारण करता है तथा सम्पूर्ण जल-थल को आप्लावित और आप्यापित करता हुआ उसका ज्ञान अन्ततः अनन्त सागर में लीन हो जाता है। योगी समझता है कि महान से महान और लघु से लघु, विशाल से विशाल और तुच्छ से तुच्छ वस्तु में परमात्मा का ही निवास है। इसलिये उसका ज्ञान सर्वत्र प्रसृत होता है। वह भेदभाव को भूलकर सबका भला करता है।

चन्द्र आह्लाद का प्रतीक है। चन्द्रमा को देखकर मन में स्वाभाविक प्रसाद उत्पन्न होता है। चन्द्रमा मनसो जातः। इसीलिए चन्द्रमा को देखकर प्रसन्न होता है। चन्द्रमा का दूसरा नाम सोम है। सोम के कारण योगी में सौम्यता का गुण उत्पन्न होता है। योगी सोमरस का पान करता है। द्वितीया का चन्द्र जितना प्यारा लगता है उतना पूर्णिमा का भी नहीं। क्योंकि पूर्णिमा के पश्‍चात् निराशा का आगमन होता है और द्वितीया के पश्‍चात् आशा उत्तरोत्तर बलवती होती है।

सर्प, नीलकण्ठ, बाघाम्बर- योगी के काम, क्रोध, मद, मोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि विषधर अन्तर को छोड़कर बाहिर आ बैठते हैं। उसका अन्तःकरण विशुद्ध हो जाता है। उसको ये दुर्भाव सता नहीं पाते। वह समस्त संसार के विषधरों को अपने यहाँ आमन्त्रित कर लेता है। संसार को इनसे मोक्ष दिला देता है। ये ही विषधर उसके आभूषणों का काम देने लगते हैं।

देव और असुर शक्ति ने मिलकर समुद्रमन्थन किया और उसमें से चौदह रत्न निकले, जिनमें एक विष भी था। अब उसको कौन पान करे? यह समस्या थी देवताओं के सामने। समस्या को हल किया शिव ने। पान कर लिया गरल गल में और नीलकण्ठ की उपाधि पाई देवों से।

योगी विद्वान् लोगों पर पड़ने वाली आपत्ति को दूर करने के लिए बड़ी से बड़ी कठिनाइयों का सामना करता है, उनको झेलता है। उसे विष दिया जाता है, पर वह उसको अमृत समझकर उसका पान करता है और समाज को तनिक भी क्षति-ग्रस्त नहीं होने देता।

योगी हिंसक जन्तुओं से परिपूर्ण वन में बाघ आदि हिस्र प्राणियों की खालों को ही अपना परिधान और आसन बनाता है। इसके साथ ही साथ अपनी इन्द्रियों को दमन करके रखता हैतथा उनके समस्त अघ (पाप) भीतर से निकलकर बाहर भागते फिरते हैं। वह उन्हीं से अपने आपको ढक लेता है और आत्माराम रूप में मस्त विचरता है।

पार्वती और डमरू- हिम आच्छादने। आच्छादन शब्द अन्धकार का द्योतक है। अन्धकार जगत् का प्रतीक है और प्रकाश पररमात्मा का। मध्यस्थित यह जीवात्मा अन्धकार के द्वारा प्रकाश को प्राप्त होता है। इसी से पार्वती प्रकाशवती बुद्धि ‘मेना’ ‘मेरा नहीं’ से उत्पन्न होती है, ‘इदं न मम’ भी इसी का विशदार्थ है।
‘इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि’ में भी सत्य की प्राप्ति अनृत से है, यही बात वर्णित की है। केनोपनिषद् में वर्णन है- स तस्मिन्ननेवाकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमां हैमवतीं तां होवाच किमेतद्यक्षमिति। उस आकाश में एक स्त्री दिखलाई पड़ी जिसका नाम ‘उमा’ था, जो हैमवती थी। मन को ‘उमा’ का दर्शन उसी प्रकाशवती प्रवृत्ति का परिचायक है।

उ=ब्रह्म मीयते यया सा, उमा=ब्रह्म विद्या को कहते हैं। वह योगी ब्रह्म विद्या को प्राप्त कर लेता है फिर उसका समस्त जीवन महायोगी कृष्ण के शब्द में- ‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना’ हो जाता है।

योगी फिर डमरू बजाता है। अपनी भावना का डिण्डिमघोष करता है। ‘डमरू’ शब्द भी परोक्ष रूप में है, प्रत्यक्ष रूप में तो ‘दमरू’ है। परोक्षप्रिया हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः। विद्वान् परोक्ष से ही प्रेम करते हैं प्रत्यक्ष से नहीं।

दमरूः शब्द का विश्‍लेषण करने पर दम और रूः दो शब्द उपलब्ध होते हैं। ‘दमरुः’ दमन को, और ‘रूः’ शब्द को कहते हैं अर्थात् उसके प्रत्येक कार्य से ‘दमनात्मक ध्वनि’ व्यक्त होती है। वह इन्द्रियदमन का पाठ पढ़ाता है। वह भोग के रोग से छुड़ाकर त्रिशूल (त्रिविध ताप) के संकट से मानव मात्र को मुक्त करता है।

भारतवर्ष और विश्‍व- भारतवर्ष योगियों के लिए प्रसिद्ध है। प्राचीन समय में भारतीयों का तीन चौथाई समय योग साधन में ही व्यतीत होता था। रघुवंशियों में तो अन्त में योग द्वारा ही प्राण-विसर्जन की प्रथा थी।

वेद के अनुसार- उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनाम्। धिया विप्रो अजायत। पर्वतों की गुफाओें में, नदियों के संगम पर, विप्र-उत्पत्ति बुद्धि द्वारा होती है। अस्थियों के भीतर हृदयाकाश में इडा, पिंगला और सुषुम्णा के संगम में बुद्धि से विप्रत्व उत्पन्न होता है। ब्राह्मी बुद्धि उपलब्ध होती है।

ये सब परम्पराएं योग साधन की परिचायिका हैं। यहाँ प्रत्येक व्यक्ति को शिव बनाया जाता था। वह देश-जाति एवं प्राणिमात्र के लिए सच्चा शिव प्रमाणित होता था। प्रत्येक भारतीय का कर्त्तव्य था कि वह शिव बने और अपनी सन्तान को शिव बनावे।

आज वह कला हमारे हाथ से निकल गई। आज हम हस्तकला-कुशल रह गए। पर मन से शिवनिर्माण की भावना दूर न हुई और इसी आधार पर उस योगीनिर्मात्री हिमालय की प्रत्येक प्रस्तरकृति को शिव मान बैठे। शिव का सच्चा स्वरूप भूल गए और एक दिन फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी की अर्द्धरात्रि में गुर्जर प्रदेश के टंकारा ग्राम में शिवव्रत के दिन, जिसमें शिवनिर्माण हेतु स्त्री-पुरुष मिलकर विचार करते थे, वहाँ केवल प्रस्तर-प्रतिमा को ही शिव मानकर करशन जी (कृष्ण जी) अपने पुत्र मूलशंकर के साथ बैठे निन्द्रा में निमग्न थे और बालक शंकर की मूर्ति के सामने जागरूक शिव की सत्यता में व्यग्र था।

गणेश-वाहन के शिव-सिर चढ़ते ही शिव की सत्यता समझने का सुअवसर हाथ आया जान पिताजी को जगाकर प्रश्‍न किए। परन्तु कोई सन्तोषजनक उत्तर न पाकर वह सत्य का पुजारी सत्यान्वेषक सच्चे शिव की खोज में वनों, पर्वतों, गिरिगुहाओं में मारा-मारा फिरा और अन्ततोगत्वा वह स्वयमेव शिवनिर्माता कुशल कलाकार गुरु विरजानन्द के हाथों में पड़कर सच्चा शिव बन गया। वह यहीं नहीं रुका, वह और आगे बढ़ा।

शिवरूप दयानन्द- कामदेव को तीसरे नेत्र से भस्म करने वाला त्रिनेत्र, आजन्म ब्रह्मचारी रहा और पार्वती (ब्रह्मविद्या) से पाणिग्रहण किया। मनुष्य समाज के सिर से पैर तक ब्राह्मण से शूद्र तक ज्ञान गंगा को बहाया। सोमरस का पान करने वाला, तीनों शूलों (त्रिशूल) को अपने एक हाथ में रखने वाला और दूसरे हाथ में वेद लेकर वेद का घोष घर-घर करने वाला ‘ओ3म्’ के नाद पर सवार, संसार के कल्याण के लिए एक बार नहीं अनेकों बार विषपान करने वाला पूर्ण दयालु शिव से भी शिवतर पूर्ण योगी महर्षि दयानन्द परमकारुणिक रूप में जनता के समक्ष आया।

उसने शिव बनाने वाली पद्धति का पुनः उद्धार किया ‘मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद’ के रूप में। इसीलिए उसने स्त्री-शिक्षा पर बल दिया, गुरुकुल प्रणाली को प्रोत्साहन दिया, वेदों की शिक्षा पुनः प्रचलित की। निर्जीवों को जीवन दान दिया। वह था सच्चा शिव, जो शिव को खोज में निकला और स्वयं शिव बन गया। कबीर के शब्दों में-
लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल।
लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल॥
यह है तन्मयता का सुन्दरतम उदारहरण।
शिव और शिवतर- मानवमात्र शिव और शिवतर बन सकते हैं, शिवतम नहीं। शिवतम तो केवल परमात्मा ही है। ‘यो वः शिवतमो रसः’ आत्माएं शिव बन सकती हैं, शिवतर बन सकती हैं, शिवतम नहीं। अवतारी पुरुष शिवतर होते हैं, जो स्वयं पारंगत होते हैं और भवसागर से पार करते हैं। स्वयं पार होने वाले शिव, दूसरों को पार कराने वाले शिवतर और लक्ष्य शिवतम है।
वेद भगवान ने भी प्रातः और सायं की सन्ध्या में अन्तिम मन्त्र को लक्ष्य रूप में प्रस्तुत किया है-
नमः शम्यवाय च मयोभवाय च,
नमः शंकराय च मयस्कराय च
नमः शिवाय च शिवतराय च।
इस मन्त्र में वह समस्त पद्धति वर्णित कर दी है जो महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने संस्कारविधि एवं सत्यार्थप्रकाश में व्यक्त की है। शैवों का मन्त्र केवल 1/6 है, जबकि वैदिकों के पास पूरा मन्त्र है। पौराणिक वर्ग शिवपूजन में इस मन्त्र का विनियोग करता है। वस्तुतः यह मन्त्र शिवनिर्माण की कला वैदिकों को सिखाता रहा है।

प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यक है कि वह सन्तान को ‘शम्भवाय च’ शान्तिपूर्वक उत्पन्न करे। अशान्ति को दूर कर शान्त क्रान्ति का सच्चा पाठ पढ़ाने वाली संस्कृति ही वास्तव में शान्ति द्वारा कामुकता को तिलांजलि देकर सुसन्तान उत्पन्न किया करती थी और वह संतान सुखोद्भव होती थी। ‘शान्ति और सुख’ ये ही तो जीवन के लक्ष्य हैं। जो समस्त भूमण्डल में शान्त और सुखी मानव बनाना चाहता है, वह अपनी सन्तानोें का निर्माण शान्ति और सुख से करें।

शान्त्युद्भव और मयोभव- सन्तान ही शान्ति करने वाली हो सकती है तथा सुखकारी शान्ति और सुख का पाठ माता तथा पिता की गोदी में ही पढ़ा जाता है। माता शान्ति सिखाती है तथा पिता सुख। जो सन्तान गर्भ से लेकर समावर्तन काल तक शान्ति और सुख का पाठ पढ़ती है तथा जो सन्तान अपनी शतायु के चतुर्थ भाग को शान्ति-सुख के सीखने में लगा देती है, वही गृहस्थ में आकर शान्ति करने वाली और सुख देने वाली होती है और वही गृहस्थी अपने आयुष्य के तृतीय भाग में पुनः पहाड़ों-वनों की शरण लेकर शिव बन जाता है। अशिव सोचने की प्रवृत्ति दग्धमूल हो जाती है।

आयु के अन्तिम भाग में वह व्यक्ति संन्यासी बनकर शिवतर बन जाता है और संसार में शिव निर्माता गृहस्थियों को शिव निर्माण का सच्चा पाठ पढ़ाता है तथा मरने के बाद शिवतम में लीन हो जाता है।

शम्भूः मयोभू=ब्रह्मचारी। शंकरः मयस्करः= गृहस्थी। शिव=वानप्रस्थ और शिवतर=संन्यासी होता है।
महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती भी शिवतर बनकर गृहस्थियों को सच्चा ‘शिव-निर्माण‘ सिखाते रहे। इसीलिए वे जिए तथा इसीलिए वे मरे और अन्त में वे शिवतम की सुमधुर गोद में समा गए।

मधुरा की पुण्यभूमि ने साढ़े पाँच हजार वर्षों बाद दयानन्द की दया और आनन्द के अवतार के रूप में समस्त संसार के लिए अनुपम भेंट दी।

शिवरात्रि अनेकों बार आई और गई, परन्तु वैदिकधर्मियों को नव-जागृति का सन्देश देने वाली शिवरात्रि वस्तुतः बोधरात्रि के रूप में सच्ची शिवरात्रि है, जिसको प्रत्येक वैदिकधर्मी बड़ी श्रद्धा से मानता और मनाता है तथा ऋषि तुल्य नई से नई शिक्षा ग्रहण करता है।
शिव और शव- ‘शव’ और ‘शिव’ में इकार का अन्तर है। इकार शक्ति का प्रतीक है। शव मुर्दे को कहते हैं। मुर्दे में यदि जीवनी शक्ति हो तो शिव हो जाता है। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने शिवतर बनकर शवों में शक्ति संचार कर दिया, उसने सोई हुई जाति को जगाया। - आचार्य विश्‍वबन्धु

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