स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी वीर सावरकर जब अण्डमान जेल में थे, तब उनके पास न कलम थी और न कागज। उनके सृजनशील मानस में कई विचार उठते किन्तु उन्हें लिपिबद्ध कैसे करें? एक दिन ऐसे ही एकान्त कोठारी में बैठे सोच में डूबे थे कि उन्हें इस समस्या का समाधान सूझ गया। उन्हीं के शब्दों में “कागज-पेंसिल के अभाव में प्रश्न उठा कि मैं टिप्पणियां किस पर लिखूं? मैं इस पहलू पर विचारमग्न था कि मेरी दृष्टि सामने की दीवा पर पड़ी। बन्दीगृह की ये सफेद, लम्बी-चौड़ी दीवारें ही तो कागज हैं और सन के कांटे लेखनी।’’ वीर सावरकर सन के कांटों से दीवार पर लिखते या फिर एक कील अपने पास रखते और उससे अपने विचार उकेरते। कोठारी का दरवाजा बन्द होते ही उनका लेखन आरम्भ हो जाता।
जेल की एक-एक दीवार, एक-एक ग्रन्थ बन गई थी। उन्होंने स्पेंसर की अज्ञेय मीमांसा को युक्तिवाद क्रम से अंकित किया था। कमला महाकाव्य को रचना उन्हीं सात दीवारों पर अंकित हुई थी। एक दीवार पर अर्थशास्त्र की महत्वपूर्ण परिभाषाएं लिखी थीं। अलग-अलग कमरों की दीवारों पर उन्हें अंकित करने का उद्देश्य यह था कि प्रत्येक माह जब बन्दी अदला-बदली के अन्तर्गत अपना कमरा बदलें तो नई-नई जानकारियां प्राप्त कर लें। इन दीवार ग्रन्थों की आयु मात्र एक वर्ष होती थी। क्योंकि प्रतिवर्ष जेल की पुताई होती थी। इस अवधि में सावरकर अपनी तमाम अंकित सामग्री को कंठस्थ कर लेते थे।
कथा का सार यह है कि जहाँ चाह होती है, वहीं राह बन जाती है। साधनों के अभाव का रोना रोने वालों के लिए सावरकर प्रेरणास्पद हैं - प्रस्तुति- कु. विनीता
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