ओ3म् सख्ये त इन्द्र वाजिनो मा भेम शवसस्पते।
त्वामभि प्र णोनुमो जेतारमपराजितम्॥ ऋग्वेद 1.11.2॥
शब्दार्थ- शवसस्पते = हे सर्वविध शक्तियों के स्वामी! इन्द्र = हे विविध ऐश्वर्यों से भरपूर ! राजाओं के राजा! ते = आपके वाजिनः = बलयुक्त, तुझ बलयुक्त की सख्ये = मित्रता में मा भेम = कभी भयभीत न हों। जेतारम् = सदा जेता रूप को चरितार्थ करने वाले अतः अपराजितम् = कहीं भी कभी भी न हारने वाले त्वाम् = आपकी अभि-प्र = अभिमुखता से, प्रकृष्टतापूर्वक नो नुमः = हम बारम्बार स्तुति करते हैं।
व्याख्या- हे विविध प्रकार के ऐश्वर्यों के अधिपति इन्द्र! आप तो बलों, बल के कारणों से भरपूर हैं। अतः हे शक्तियों के भण्डार ! हम आपकी सख्यतो को इस प्रकार से अनुभव करें कि हमें किसी प्रकार का कहीं से भय न हो। हम निर्भर होकर अपनी आत्मा की प्रेरणा के अनुसार सर्वहित साधक कार्य को ही करें। किसी प्रकार के भय से भी कल्याण पथ से दूर न हों, शुभ कार्यों से विचलित न हों।
हम अपने प्रतिदिन के जीवन में अपने मित्रों के सद्भाव, सहयोग, सहानुभूति को जहाँ अनुभव करते हैं, वहाँ हमारा इतिहास भी श्रीराम-विभीषण, श्रीराम-सुग्रीव, श्रीकृष्ण-सुदामा, दुर्योधन-कर्ण जैसे मैत्रीजन्य उदाहरणों से भरा हुआ है। ऐसी सख्यता की भावना से हम भी भरपूर हों। अपने जीवन में आप जैसे नेता की जयों को सदा स्मरण रखते हुए हम इस विश्वास पर जियें कि कहीं भी भयभीत, विचलित नहीं हों आप तो ऐसे नेता हैं, जो कहीं भी, कभी भी किन्हीं परिस्थितियों में भी पराजित नहीं होते। किसी को अपने भौतिक अस्त्र-शस्त्रों पर गर्व होता है, तो किसी को अपने शारीरिक बल पर भरोसा होता है। कुछ अपने मित्रों, व्यक्तियों की संख्या पर इतराते नहीं थकते। कुछ अपने आत्मिक बल पर प्रत्येक विपरीत परिस्थिति में सर्वथा निखरकर निकलते हैं।
ऐसे संसारी बलों से भी आप अनोखे तेजस्वी हैं कि आपके ओज को अनुभव करके अति-आत्मीयता से आपको बारम्बार सब नमन करते हैं। तेरी स्तुतियों का हम ऐसा स्तवन करें कि जैसे आप हमारे अभिमुख हों। आप हमारे जीवन के हर व्यवहार में अंग-संग हो। हम केवल वाणी से ही आपके गीत न गायें, अपितु जीवन के प्रत्येक कर्म से उस भावना को प्रकट करें। अर्थात आपकी गुण गरिमा हम अपने जीवन के सच्चे-सुच्चेपन से प्रकट करें।
संसारी जीवन में हम प्रायः पग-पग पर ऐसा देखते हैं कि सीमा वाले मित्रों के सहारे पर अनेक लोग बड़े-बड़े कार्य कर दिखाते हैं। इससे सिद्ध हो जाता है कि सख्यता के आधार पर कितना सम्बल आ जाता है और व्यक्ति निर्भय हो जाता है।
प्रभो ! आप तो प्रत्येक प्रकार से असीम हैं। अतः हमें इतना विश्वास दो कि आपके अतुल तेज से तेज प्राप्त करके जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बिना विचलित हुए आगे से आगे बढते रहें। जैसे सन्त, भक्त विपरीत परिस्थितियों और विरोधों में भी आपकी सख्यता से निर्भय हो गए। सताने वालों ने उनको अनेक प्रकार से सताकर आपकी सख्यता से दूर करने का अपनी ओर से भरपूर प्रयास किया। पर आपके अलौकिक तेज से वे कुन्दन बनकर निखरे रूप में सामने आए।
नोनुमः में नु (शब्दे) धातु में द्वित्व है अर्थात इसका दो बार प्रयोग हुआ है, जिसका भाव है कि हम इन्द्र की बार-बार स्तुति करें। क्योंकि उसकी सख्यता,मित्रता और उसके उपकारों का कोई अन्त नहीं है। अतः उसके आभारों को स्वीकार करते हुए उसका हृदय से गुणगान, सत्कार, सम्मान करें। (वेद मंथन)
वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद - गीता सन्देश | जैसा बोओगे वैसा काटोगे | वेद कथा - 103 | Introduction to Vedas & Bhagavad Gita