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जीवन को प्रकाशित करती है- आत्मज्योति

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ज्योति-पर्व मनाते हुए वर्षों बीत गए। अंधेरे का साम्राज्य ज्यों का त्यों न केवल विद्यमान है अपितु बढ़ता जा रहा है। दीपक की तेज रोशनी की जाएगी लोग प्रकाश में बैठकर खरे-खोटे सौदे करेंगे, जुआ खेलेंगे तथा कई प्रकार के अनैतिक कार्यों को संपादित करेंगे। दीपक जलते रहेंगे उनके प्रकाश में यह सब कुछ होता रहेगा। दीपक हम प्रतिदिन जलाते हैं। दीपावली के दिन कुछ ज्यादा दीपक जला लेते हैं, परन्तु यह क्रिया जीवन को विशेष रूप से प्रभावित नहीं कर पाई। इससे यह संकेत मिलता है कि ज्योति पर्व मनाने का उद्देश्य केवल दीपक जलाना और लक्ष्मीजी का पूजन कर लेना मात्र नहीं है, निश्‍चित ही कुछ और है।

शास्त्रीय आधार पर हमारे यहाँ मनाए जाने वाले व्रत-त्यौहार का उद्देश्य आध्यात्मिक दिशा निर्देश ही रहा है। उनके रहस्य को समझकर ही कर्त्तव्य की दिशा निर्धारित करना उचित है। इस आधार पर यदि हम विचार करें तो दीपावली अर्थात् ज्योति-पर्व अत्यन्त महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश करता है।

भगवान विष्णु प्राणिमात्र के पालन-पोषणकर्त्ता है। यही उनका लक्ष्य है। भगवान विष्णु के इसी लक्ष्य को धारण करने वाली माँ भगवती ‘लक्ष्मी’ जैसे आदर-सूचक संबोधन से सुशोभित हैं। लक्ष्मी-पूजन की यही प्रेरणा प्रतीत होती है, जिसे धारण करना ही उचित है। राम के लक्ष्य ही जिसके मन के लक्ष्य बन गए थे, वे ही लक्ष्मण वन्दनीय हैं। ऐसी ही साधना से आत्मज्योति प्रज्ज्वलित होकर समग्र जीवन के कर्त्तव्य-कर्मों को प्रकाशित करती है।

माता लक्ष्मी का यथार्थ में पूजन-अर्चन किया था महारानी माता अहिल्या बाई ने। होल्कर राज्य की सम्पूर्ण सम्पत्ति शिवार्पण कर प्राणि-मात्र की सेव में समर्पण कर भगवती लक्ष्मी के लक्ष्य को अपना जीवन लक्ष्य बना लिया था। दान-दक्षिणा, सदाव्रत, अन्न क्षेत्र, भूखों को अन्न और पक्षियों चुगा उनकी साधना बन गई थी। कथन है-
“सदावरत ने घाट बन्या है, जां देखो वां इनका जी।
गायां-मछलि जानवशं ने, अपना हाथ चुगाती थी,
दान धरम ने अन्नदान वे, अपना हाथों करती थी।’’
लक्ष्मी पूजन के दूसरे उदाहरण हैं दानवीर कर्ण, राजा बलि और बाद में भामाशाह, जिन्होंने अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति राष्ट्रीय स्वाभिमान की रक्षार्थ महाराणा प्रताप की समर्पित कर दी थी। ये उदाहरण हैं- प्रज्ज्वलित आत्म-ज्योति के प्रकाश में कर्त्तव्य भावना से किए गए कर्मों का।

जब हम दीप प्रज्जवलन पर विचार करते हैं तो पाते हैं- ‘दीप...प्रज्ज्वलन’ अर्थात ज्ञान-साधना और प्रकाश है- प्राप्त ज्ञान । कथन है- ‘ज्ञान ही कर्मों में व्यवहारित होकर चरित्र का निर्माण करता है।’ अन्य कोई सी भी शिक्षा प्राप्त कर लें, परन्तु आत्म-ज्ञान के अभाव में केवल सांसारिक शिक्षा प्राप्त व्यक्ति भ्रष्टाचारी, अनाचारी और क्रूर चरित्र वाला बन सकता है। दूसरी ओर सदाचार आत्म-ज्ञान का प्रतीक है। दीपावली पर्व पर दीप प्रज्ज्वलन आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की साधना का व्रत लेने का दिशा निर्देशक है। ज्ञान का व्रत लेकर साधक कामना करता है- “हे भगवान्! तमसोऽमा ज्योर्तिगमय’ परिणामतः ‘असोतऽमा सद्गमय’ और अन्त में ‘मृत्योऽमा अमृतंगमय’ और साधक आत्म-ज्ञान सम्पन्न हो जाता है- उसकी आत्म ज्योति प्रज्ज्वलित हो जाती है। उस ज्योति के प्रकाश में उसका जीवन प्रकाशित हो जाता है। इस प्रकाश में उसे सम्पूर्ण प्राणी ‘आत्मवत् सर्व भूतेषु’ दिखाई देने लगते हैं। इस ज्योति के प्रकाश में ‘खल्विदं ब्रह्मः’ ईशावास्यममिदं सर्वम्’ स्पष्ट रूप से आत्मसात हो जाता है। और तब वह समझ लेता है- ‘यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे’। इस विवेचन के आधार पर ज्योति पर्व आत्मज्योति प्रज्ज्वलित करने के व्रत लेने का पर्व है। आइए-
“चक्र मध्य में ज्यों और हों, मिलकर करें अग्नि अर्चन’’ यही ज्योतिपर्व की प्रेरणा है। - प्रो.- जगदीश दुर्गेश जोशी

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