ओ3म् तृदला अतृदलासो अद्रयोऽश्रमणा अशृथिता अमृत्यवः।
अनातुरा अजराः स्थामविष्णवः सुपीवसो अतृषिता अतृष्णवः॥ (ऋग्वेद 10.94.11)
शब्दार्थ- तुम (तृदलाः) भेदक (अतृदलासः) स्वयं अभेद्य (अद्रयः) पर्वत और मेघ बनो (अश्रमणाः) अनथक (अशृथिताः) अशिथिल (अमृत्यवः) मृत्युरहित (अनातुराः) रोगरहित (अजराः) जराररहित (अमविष्णवः) सदा गतिशील (सुपीवसः) हृष्ट-पुष्ट (अतृषिताः) लोभ से रहित, संतोषी (अतृष्णजः) निर्मोही (स्थ) बनो।
भावार्थ- मन्त्र में निम्न बारह आदेश हैं-
1. हे मनुष्यो ! तुम अविद्या-अन्धकार और अधर्म को छिन्न-भिन्न करने वाले बनो।
2. तुम स्वयं अभेद्य बनो! संशय, विघ्न और बाधाएँ, नास्तिकता और अधार्मिकता तुममें प्रविष्ट न हो सके।
3. तुम पर्वत के समान उच्च-अचल और मेघ-समान उदार बनो।
4. तुम श्रम से न थकने वाले बनो।
5. अशिथिल बनो। आलस्य और प्रमाद तुम्हारे पास फटकने न पाए।
6. मृत्युरहित बनो अर्थात् चारित्रिक, नैतिक, धार्मिक मृत्यु न हो।
7. तुम रोगरहित और स्वस्थ बनो।
8. तुम वृद्धावस्था से रहित रहो। उचित खान-पान, नियमित व्यायाम और ब्रह्मचर्य-पालन आदि द्वारा बुढ़ापे को अपने पास मत आने दो। जीवन में युवकों जैसी स्फूर्ति हो।
9. उद्योगी, पुरुषार्थी और प्रगतिशील बनो।
10. हष्ट-पुष्ट बनो। दुर्बल शरीर वाले मत रहो।
11. सन्तोषी बनो।
12. मोहरहित, निःस्पृह बनो। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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