अपने गन्तव्य स्थान तक पहुँचने वाला राही यात्रा प्रारम्भ करने से पहले जब यह देखता है कि कई मार्ग एक साथ उसे उसके लक्ष्य तक ले जा सकते हैं, तो वह निश्चय ही सबसे छोटे किन्तु सरल मार्ग का चयन करेगा, ताकि उसकी यात्रा निर्विघ्न समाप्त हो। यही दशा जीवन पथ में प्रवेश करने वाले बच्चे की है, जो अपनी यात्रा सफलतापूर्वक पार करना चाहता है। इसके लिए उसे अनेक प्रकार की परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। सफल जीवन के लिये अन्यान्य उपकरणों के साथ ही उसे आवश्यकता होती है सच्चरित्रता के दृढ़ आधार की।
अच्छे चरित्र का निर्माण जितना अधिक बच्चों के लिए वांछनीय है, उतना ही कठिन भी। इसके लिए उत्कट इच्छा, तीक्ष्ण बुद्धि तथा सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक सूझ की आवश्यकता है। इतना तो हम सभी जानते हैं कि बच्चा हो या बड़ा, जब तक कोई कार्य हमारी रुचि का प्रधान विषय नहीं बन जाता, तब तक हमें उस कार्य में विशेष सफलता नहीं मिल सकती। अतः यह निश्चित है कि हम बच्चों से जिस कार्य की भी आशा करते हैं, उसमें उनकी रुचि पहले जागृत करनी है। बस यहीं से हमें विशेष उत्तरदायित्व सम्हालना है।
बच्चों को चरित्र के अच्छे गुणों की ओर ले जाने में स्थायी भाव बड़े सहायक सिद्ध होते हैं। स्थायी भाव सर्वांश में जन्मजात अथवा स्वाभाविक नहीं होते। यह संवेग जनित एक मानसिक भाव है। वातावरण में संघर्ष के फलस्वरूप हमारी मानसिक वृत्तियों में कुछ परिवर्तन आ जाता है। बहुधा हम देखते हैं कि जब हम किसी वस्तु को प्रथम बार देखते हैं तो या तो उसके प्रति हमारे मन में प्रेम के भाव उठते हैं या घृणा के। यदि ये पदार्थ हमारे सामने बार-बार लाए जायें, तो उनके प्रति हमारी प्रेम अथवा घृणा की धारणाएँ पुष्ट हो जायेंगी और उन वस्तुओं के प्रति एक स्थायी छाप हमारे मन में जम जाती है। यही स्थायी भाव है। स्थायी भाव भी दो भागों में बाँटे जा सकते हैं-
1. स्थूल वस्तुओं के प्रति 2. अमूर्त भावनाओं अथवा गुणों के प्रति। शेर या भालू को जंगल में स्वतन्त्र विचरता देखकर हमें मूल प्रवृत्ति के आधार पर भय का अनुभव होता है। कई बार जब इसी क्रिया की आवृत्ति होती है, तो शेर अथवा भालू के प्रति हमारे मन में भय का स्थायी भाव पुष्ट हो जाता है। ठीक इसी प्रकार बच्चा अपने खिलौने, घर, माँ-बाप, भाई-बहन, गली, बस्ती आदि के प्रति प्रेम के स्थायी भाव बना लेता है। निरन्तर कई वर्ष तक एक ही विद्यालय में पढ़ने से हमें विद्यालय के भवन से एक विशेष प्रकार का लगाव हो जाता है। इस प्रकार यह स्थायी भावों का स्थूल पक्ष है। किन्तु इससे और एक पग आगे बढ़कर स्थायी भाव अमूर्त गुणों की ओर भी उत्पन्न किए जा सकते हैं।
सद्गुणों और सद्विचारों के प्रति बच्चों के स्थायी भावों का निर्माण करना उनके चरित्र विकास में सहायक है। किन्तु रुचि को ध्यान में रखते हुए नैतिक गुणों की ओर बच्चों को उन्मुख करना सरल कार्य नहीं है। छोटे बच्चे देशभक्ति, सभ्यता, अध्यवसाय तथा न्यायप्रियता आदि सद्गुणों का अर्थ भी ठीक-ठीक नहीं समझ सकते। किन्तु मनोवैज्ञानिक विधि से उन्हें इन गुणों का परिचय कराया जा सकता है। बालकों को कुछ ऐसी क्रियाओं से परिचित कराना चाहिए, जिनमें इन गुणों की छाप हो। इतिहास और साहित्य के विविध उदाहरणों द्वारा इस उद्देश्य की पूर्ति की जा सकती है। बालकों में स्वच्छता की आदत डालने के लिए ऐसे बच्चों की सामूहिक रूप से प्रशंसा की जाये तो दूसरे बच्चे भी अपना ध्यान उस ओर आकर्षित करेंगे। इसी प्रकार इतिहास प्रसिद्ध महान् नेताओं के प्रति भी हम बच्चों के स्थायी भाव जागृत कर सकते हैं।
बच्चों के चरित्र-विकास में सहायक कुछ विशेष स्थायी भावों की चर्चा करना आवश्यक है।
देशभक्ति का स्थायी भाव- बच्चों में राष्ट्रीय भावना अंकुरित करने के लिए स्कूल में उन्हें अपने देश के इतिहास से परिचित कराना आवश्यक है। भूगोल में देश का क्षेत्रफल लम्बाई-चौड़ाई, जलवायु की विविधता तथा अन्तरराष्ट्रीय व्यापार आदि का ज्ञान कराना भी आवश्यक है। यदि हम देश की प्रसिद्ध वस्तुओं, ऐतिहासिक भवनों, फसलों, खनिज आदि का ज्ञान बच्चे को कराएंगे तो निश्चय ही देश के प्रति उसका अनुराग बढ़ेगा। ऋषि-मुनियों, बड़े-बड़े साहित्यकारों, इतिहास के प्रसिद्ध वीर पुरुषों, बड़े-बड़े समाज सुधारकों तथा महापुरुषों और क्रान्तिकारियों का ज्ञान जब बच्चे को दिया जायगा, तब वह अपने देश और जाति पर गौरव का अनुभव करेगा।
आत्म-गौरव का स्थायी भाव- समाज में हर प्राणी का कुछ निश्चित क्षेत्र होता है। उस क्षेत्र से सम्बन्धित वस्तुएँ उसके ‘स्व’ के क्षेत्र में आती है। उनसे उसका विशेष स्नेह होता है। इसी आत्म अथवा ‘स्व’ के दायरे में चलकर मनुष्य अपने सामने कुछ आदर्श निश्चित करता है। वह आदर्श उसके आत्म-गौरव का स्थायी भाव है। वास्तव में आत्मगौरव का स्थायी भाव हमारे समस्त जीवन कार्यों का आधार है। हमारा व्यवहार इसी स्थायी भाव के मापदण्ड से नापा जा सकता है। अमुक व्यक्ति अथवा वस्तु ग्रहणीय है अथवा अमुक त्याज्य, यह सब इसी स्थायी भाव पर निर्भर है। अपने आपको ठीक-ठीक समझना, समाज में अपनी एक परिस्थिति विशेष का निर्माण करना सब इसी स्थायी भाव पर अवलंबित है। कभी-कभी घर वाले या अध्यापक बच्चे को सदैव उसकी अयोग्यता के लिए फटकारते रहते हैं, यह अनुचित है। ऐसा करने से बच्चा अपने आप को एकदम अयोग्य समझकर कुछ भी कर सकने में अपने आपको असमर्थ पाता है। ठीक इसके विपरीत यदि हम बच्चे के सामने उसकी आवश्कता से अधिक प्रशंसा कर दें, तो वह दम्भी एवं निष्क्रिय भी हो सकता है। अतः उसके उचित नियमन का भार गुरुजनों पर ही पड़ता है।
इसी प्रकार ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, कठोर परिश्रम, अनुशासन, नम्रता आदि और अनेक गुण ऐसे हैं, जिनके प्रति हम बच्चों के स्थायी भाव जागृत करके उनके चरित्र की पक्की और सुदृढ़ नींव डाल सकते हैं। किन्तु प्रत्येक गुण के लिए ठोस उदाहरण, व्यावहारिक, अनुकरणीयता आदि सुलभ करना बड़ों का कार्य है। केवल उपदेश मात्र दे देने से काम नहीं चलता। हमें अधिक परिश्रम से इन चरित्र नियामक नैतिक किन्तु नीरस गुणों में भी बच्चों की रुचि जागृत करनी पड़ती है, उनका मानसिक गठन उन परिस्थितियों के अनुकूल बनाना है तथा उनमें वे भाव स्वाभाविक रूप से उड़ेलने हैं, तभी वे अपने भावी जीवन में अपने देश और जाति का मस्तक गौरव से ऊंचा कर सकेंगे।
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