ओ3म् चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्यां आ विवे॥ (ऋग्वेद 4.58.3)
शब्दार्थ- एक वृषभ है (अस्य) इसके (चत्वारि शृंगाः) चार सींग हैं (त्रयः पादाः) तीन पैर हैं (द्वे शीर्षे) दो सिर हैं और (अस्य) इसके (सप्त हस्तासः) सात हाथ हैं। वह (त्रिधा बद्धः) तीन प्रकार बँधा हुआ है। वह (वृषभः) वृषभ (रोरवीति) रोता है। वह (महःदेवः) महादेव (मर्त्यान् आ विवेश) मनुष्यों में प्रविष्ट है।
भावार्थ- पाठक! क्या आपने संसार में ऐसा अद्भुत वृषभ=बैल देखा है? यदि नहीं तो आइए, आपको इसके दर्शन कराएँ।
वर्षणशील होने के कारण अथवा पराक्रमी होने के कारण आत्मा ही वृषभ है। मन्त्र में इसी वर्षणशील आत्मा का वर्णन है। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार इसके चार सींग हैं।
भूत, वर्तमान और भविष्यत् इसके तीन पैर हैं। ज्ञान और प्रयत्न ये दो सिर हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि अथवा सप्त प्राण सात हाथ हैं।
सत्व, रज और तमरूपी तीन पाशों से यह बँधा हुआ है। इन पाशों में, बन्धनों में बँधा होने के कारण वह रोता और चिल्लाता है। यह महादेव मरणधर्मा शरीरों में प्रविष्ट हुआ करता है। यह आत्मा इस शरीर बन्धन से मुक्त कैसे हो? वेद ने इसके छुटकारे का उपाय भी बता दिया है। वह यह कि मनुष्य अपने स्वरूप को समझे। वह महादेव है, इन्द्रियों का अधिष्ठाता है, स्वामी है। इन्द्रियों के दास न बनकर स्वामी बनो तो त्रिगुणों से त्राण पाकर मोक्ष के अधिकारी बन जाओगे। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती (दिव्ययुग- जनवरी 2013)