यज्ञ की अग्नि को जलाने की लकड़ी का नाम ‘समिधा’ है। यजुर्वेद वाङ्मय में यज्ञ में प्रयुक्त समिधाओं का उल्लेख भी प्राप्त होता है। यजुर्वेद में अग्नि के लिए सात समिधाओं का उल्लेख है,
किन्तु इनका नाम नहीं दिया गया है- सप्त ते अग्ने समिधः।194
आचार्य वैद्यनाथ शास्त्री ने इन सात समिधाओं को निम्न प्रकार से परिगणित किया है- बिल्व, बड़, पीपल, खदिर, आम्र, उदुम्बर तथा पलाश।195
शतपथ ब्राह्मण में यज्ञीय वृक्षों के रूप में पलाश, विकङ्कत, काष्मर्य (भद्रपर्णी), बिल्व, खदिर तथा उदुम्बर का उल्लेख आता है-
अथोऽअपि वैकङ्कता स्युर्यदि वैकङ्कतान्न विन्देदथोऽअपि कार्ष्मर्यमर्याः स्युर्यदि कार्ष्मर्यमयान्न विन्देदथोऽअपि बैल्वाः स्युरथो खादिरा अथोऽऔदुम्बरा एते हि वृक्षा यज्ञियाः॥196
शतपथ ब्राह्मण में यज्ञीय समिधा हेतु ‘अपामार्ग’ के विषय में उल्लेख है कि अपामार्ग से ही देवों ने सब दिशाओं में दुष्ट राक्षसों (प्रदूषकों) को मारा तथा विजय लाभ किया। इसी प्रकार इस होम के द्वारा यह (यजमान) दिशाओं में राक्षसों को मारता है अर्थात् प्रदूषकों को नष्ट करता है-
अथापामार्गहोमं जुहोति। अपामार्गेर्वैदेवा दिक्षु नाष्ट्रा रक्षांस्यपामृजत ते व्यजयन्त येयमेषां विजितिस्तां तथोऽएवैषऽएतदपामार्गेरेव दिक्षु नाष्ट्रा रक्षांस्यपमृष्टे तथोऽएव विजयते विजितेऽभयेऽनाष्ट्रे सूयाऽइति।197
कपिष्ठल संहिता में उल्लेख है कि शान्ति की प्राप्ति के लिए ‘शमी’ की समिधाओं से यज्ञ किया जाता है- यच्छमीशाखया प्रार्पयति शान्त्यैः॥198
यज्ञीय समिधाओं के विषय में विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से चिन्तन किया है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने पलाश, शमी, पीपल, बड, गूलर (उदुम्बर), आम, बिल्व आदि की समिधाओं का प्रयोग करना लिखा है तथा लिखा है कि समिधाएं कीड़े लगी, मलिन देशोत्पन्न तथा अपवित्र पदार्थ आदि से दूषित न हो।199
यज्ञ में उन वृक्षों की समिधाएं प्रयुक्त होती हैं, जिनसे प्रदूषण कम होता है तथा ऊर्जा और आरोग्यता विशेष होती है। अंगार होने पर उनसे कोयला न बनकर भस्म ही बन जाती है। अलग-अलग कामनाओं के लिए अलग-अलग समिधाओं का प्रयोग किया जाता है।200 उदाहरणार्थ वृष्टियज्ञ में कैर की समिधाओं का प्रयोग किया जाता है। सामान्य रूप से दैनिक, पाक्षिक अथवा मासिक अग्निहोत्र करने वाले याज्ञिक शमी, पीपल अथवा आम की समिधाओं का प्रयोग करते हैं। ये सभी वृक्ष औषधीय गुणों से युक्त हैं।
चन्दन, पलाश, आम आदि की लकड़ी उत्तम मानी गई है। इंग्लैण्ड आदि देशों में शाहबलूत (जअघ), अफगानिस्तान तथा बिलोचिस्तान में बादाम की लकड़ी, जर्मनी में लैवेण्डर तथा भारत और इटली में युकेलिप्टस की लकड़ी यज्ञ-समिधा के रूप में प्रयुक्त हो सकती है।201 आजकल गाय के गोबर से बने कण्डों का भी यज्ञ की अग्नि जलाने में प्रयोग किया जा रहा है। गाय के गोबर से बने कण्डों की अग्नि प्रयुक्त करने के पीछे उसके रोगाणु तत्व निरोधक तत्वों का महत्व है।202
समिधाओं के विषय में रसायनशास्त्री डॉ. रामप्रकाश जी लिखते हैं कि “प्रत्येक लकड़ी की समिधा नहीं बनाई जा सकती। यज्ञ में कुछ विशेष लकड़ियाँ ही प्रयुक्त होती है। अग्निहोत्र में प्रयोग की जाने वाली समिधा के कुछ गुण निम्नलिखित हैं-
1. न विनिर्मुक्तत्वचा चैव।
2. लकड़ी मलिन, दूषित एवं कीड़ा लगी हुई न हो।
3. जलने पर दुर्गन्ध और अपना धुआँ न दे।
4. यदि जलकर राख हो जाए तो अधिक ठीक है। कोयला बनाने वाली लकड़ी कम उपयोगी है।203
आज पर्यावरण के दूषण की समस्या बढ़ती जा रही है, जिसका समाधान ‘यज्ञ’ द्वारा हो सकता है। प्राचीनकाल में घर-घर में यज्ञ होते थे। ऋषियों ने प्रत्येक गृहस्थ के लिए पंच महायज्ञों के अन्तर्गत दैनिक अग्निहोत्र का विधान किया था। जब तक यज्ञ-हवन करने का प्रचार रहा तब तक आर्यावर्त देश रोगों से रहित एवं सुखों से पूरित था। अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो सकता है। (क्रमशः)
सन्दर्भ-सूची
194. यजुर्वेद संहिता 17.19
195. वैदिक यगदर्शन
196. शतपथ ब्राह्मण 1.3.3.20
197. शतपथ ब्राह्मण 5.2.4.14
198. कपिष्ठल संहिता 46.8
199 पञ्चमहायज्ञविधि
200. यज्ञमहाविज्ञान पृ. 26.38 पं. वीरसेन वेदश्रमी
201. यज्ञविमर्श, डॉ. रामप्रकाश पृ. 34
202. अग्निहोत्र, श्री जयन्त पोतदार पृ. 12
203. यज्ञविमर्श, डॉ. रामप्रकाश पृ. 33 * सत्यार्थ प्रकाश, तृतीय समुल्लास
स्वामी दयानन्द सरस्वती
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