विशेष :

अग्नि पर्यावरण (अग्निहोत्र) (3)

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यजुर्वेद में घृत तथा समिधाओं से अग्नि प्रदीप्त करने तथा प्रदीप्त अग्नि में औषधियों आदि सामग्री की आहुति डालने का उल्लेख मिलता है-
समिधाग्निं दुवस्यत धृतैर्बोधयतातिथिम्।
आस्मिन् हव्या जुहोतन॥173

निम्न मन्त्रों में औषधियों के सार धान आदि अन्न, भुने हुए धान्य, सत्तू, दूध, दही, आमिक्षा, शहद, सोम और घृत आदि हवन यज्ञ के पदार्थों का उल्लेख आता है

धानाः करम्भः सक्तवः परीवापः पयो दधि।
सोमस्य रूपं हविष आमिक्षा वाजिनं मधु॥174
अग्निर्भेषजं पयः सोमः परिस्रुता घृतं मधु।
व्यन्त्वाज्यस्य होतर्यज॥175

अग्निहोत्र में अन्य पदार्थों के साथ घी की मात्रा विशेष होती है। घी के बिना अग्निहोत्र सम्पन्न नहीं हो सकता। यजुर्वेद में यज्ञ में घी को प्रचुर मात्रा में डालने का उल्लेख है-
घृतस्यास्मिन् यज्ञे धारयामा नमोभिः।176
घृतस्य धारा अभिचाकशीमि॥177
एते अर्षन्त्यूर्मयो घृतस्य।178
पतयन्ति यह्वाः घृतस्य धारा।179
घृतस्य धारा मधुमत्पवन्ते॥180

यजुर्वेद वाङ्मय में घी को ही यज्ञ कहा गया है-
आज्यं वै यज्ञः।181
एतद्वै प्रत्यक्षाद्यज्ञ रूपं यद् घृतम्।182

घी प्रदूषण निवारक तथा पर्यावरण शोधक है। यजुर्वेद वाङ्मय में घी से अभिप्राय गाय के घी से है। फलतः यज्ञ के लिए गायपालन भी आवश्यक है। घी में यह विशेषता है कि यह अग्नि में डाले जाने पर बाह्य प्रदूषण का निवारक होकर वायु, जल आदि का शोधन करता है तता पीए जाने पर शरीर के अन्दर के विष के प्रभाव को समाप्त करता है। इसीलिए ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी सर्पादि के काटे जाने पर रोगी को घी पिलाया जाता है।

जैसे सर्प वायुमण्डल का विष पीकर वायु को विषमुक्त करते हैं, वैसे ही घृत रूपी सर्प भी यज्ञ के द्वारा पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करता है। घृत सर्प की तरह सर्पण करता है इसलिए सर्पि कहा जाता है-
यदसर्पत् तत् सर्पिभवत्।183

देवता लोग घी रूपी वज्र से शत्रु रूपी प्रदूषण को नष्ट करते हैं-
आज्येन वै देवा वृत्रमघ्नन्।184

घी से अग्नि का शरीर बढ़ता है अर्थात् अग्नि पर्यावरण शोधन में समर्थ होती है-
घृतेन ते (अग्ने) तन्वं वर्धयामि।185

यज्ञ में मधुमक्खियों द्वारा संगृहीत शहद भी डाला जाता है। तैत्तिरीय संहिता में उल्लेख है कि मधु ही देवताओं का उत्तम पेय है-
मधु वै देवानां परममन्नाद्यम्।196

घी एवं शहद के अतिरिक्त दूध, दही, आमिक्षा आदि द्रव्य पदार्थ भी यज्ञ में उपयोगी है, इसका भी यजुर्वेद वाङ्मय में उल्लेख प्राप्त होता है।
मधुर दही की आहुति से देवताओं को प्रसन्न (अनुकूल) किया जाता है-
दघ्ना मधुमिश्रेणावोक्षति हुतादः देवान् प्रीणति।187

पशुओं का सार दही यज्ञ के योग्य है-
मेघो वा एषा पशुनामुर्क् दधि।188

दही से आमिक्षा बनती है। आमिक्षा को ही ‘पयस्या’ भी कहते हैं। ‘आमिक्षा’ को मरुत् तथा वरुण देवताओं की हवि कहा गया है-
मारुतीमामिक्षा वारुणीमामिक्षा॥190

‘आमिक्षा’ चातुर्मास्य होम के वैश्‍वदेव पर्व की भी हवि है-
वैश्‍वदेवीमामिक्षां निर्वपति॥190

मित्र तथा वरुण के लिए ‘आमिक्षा’ की आहुति दी जाती है-
मैत्रावरुणीमामिक्षां निर्वपति।191
मैत्रावरुणी पयस्या भवति।192

हवन यज्ञ में प्रयोग किए जाने वाले औषधियों के मिश्रण को सामान्य रूप से ‘हवन सामग्री’ कहा जाता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हवन सामग्री के पदार्थों को चार प्रकार का लिखा है-
प्रथम सुगन्धित- केसर, कस्तूरी, अगर, तगर, श्‍वेत चन्दन, इलायची, जावित्री आदि। द्वितीय पुष्टिकारक- घृत, दुग्ध, फल, कन्द, अन्न, चावल, गैहूँ, उड़द आदि। तीसरे मिष्ट- शक्कर, शहद, छुआरे, दाख आदि। चौथे रोगनाशक- सोमलता अर्थात् गिलोय आदि औषधियाँ।193 (क्रमशः)
सन्दर्भ-सूची
173. यजुर्वेद संहिता 3.1
174. यजुर्वेद संहिता 19.21
175. यजुर्वेद संहिता 21.40
176. यजुर्वेद संहिता 17.90
177. यजुर्वेद संहिता 17.93,97
178. यजुर्वेद संहिता 17.94
179. यजुर्वेद संहिता 17.95
180. यजुर्वेद संहिता 17.98
181. मैत्रायणी संहिता 4.1.12
182. शतपथ ब्राह्मण 12.8.2.15
183. तैत्तिरीय संहिता 2.3.10.1
184. काठक संहिता 24.9
185. काठक संहिता 38.12
186. तैत्तिरीय संहिता 7.5.10.1
187. तैत्तिरीय संहिता 5.4.5.2
188. काठक संहिता 20.7
189. तैत्तिरीय संहिता 1.8.3.2
190. तैत्तिरीय संहिता 1.8.2.1
191. तैत्तिरीय संहिता 1.8.19.1
192. शतपथ ब्राह्मण 5.5.1.1
193. संस्कार विधि, सामान्य प्रकरण

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