मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, क्योंकि वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज के माध्यम से करता है। मनुष्यों के समुदाय के अर्थ में ‘समाज‘ शब्द प्रयुक्त होता है। मनुष्येतर प्राणियों के समूह को ‘समज‘ कहा जाता है- ‘समुदोरज: पशुषु‘ समज: पशूनाम्। समुदाय इत्यर्थ: पशुषु इति किम्? समाजो ब्राह्मणानाम्॥58
जिसमें अनेक अनेक मनुष्य मिलकर कार्य करते हैं, वह समाज कहलाता है। मनुष्य की वह गति मर्यादित तथा क्रमबद्ध होती है। सम अजन्ति जना: यस्मिन् स समाज:। अर्थात् सबकी मिलकर गति व प्रगति करने हेतु रहने वाले मानव समुदाय का नाम समाज है।
समाज के कार्यों का सुचारु रूप से संचालन करने के लिए वैदिक ऋषियों ने वर्ण विभाजन किया था। वर्ण चार हैं- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। वैदिक काल में यह वर्ण-व्यवस्था जन्म पर आधारित न होकर गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित थी। कोई भी व्यक्ति कोई सा भी वर्ण चुन सकता था। चुनाव कर सकने योग्य होने से ही वर्ण को ‘वर्ण‘ कहा जाता है। निरुक्त के ‘वर्णो वृणोते:‘59 सूत्र के अनुसार ‘वर्ण‘ वह है, जिसका कर्मानुसार वरण किया जाए। इसकी व्याख्या में स्वामी दयानन्द सरस्वती लिखते हैं-
वर्णो वृणोतेरिति निरुक्तप्रमाण्याद्वरणीया वरीतुमर्हा, गुणकर्माणि च दृष्ट्वा यथायोग्यं वियन्ते ये ते वर्णा:॥60
अर्थात् जिसके जैसे गुणकर्म हों, उसे वैसा ही कार्य देना ‘वर्ण‘ है। अत: जब कोई मनुष्य अपने गुण, कर्म, रुचि व योग्यतानुसार शिक्षा प्राप्त करता है तथा तदनुसार जीविका चुनता है या वरण करता है, वह उसका ‘वर्ण‘ कहलाता है और इस वर्ण का उसके माता-पिता के वर्ण के साथ सम्बन्ध होना अनिवार्य नहीं है। मनुष्य अपनी रुचि के अनुसार कोई भी वर्ण चुन सकता है तथा योग्यतानुसार बदल भी सकता है।
मनु की ‘चतुवर्ण व्यवस्था‘ यजुर्वेद (31.10,11) के आधार पर है- ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निवर्तयत्॥61
गीता में भी इसी कर्मणा चतुर्वर्ण-व्यवस्था की पुष्टि की गई है-
चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धि कर्त्तारमव्ययम्॥62
ब्राह्मण-क्षत्रिय-विशां शूद्राणां च परन्तप:।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवै: गुणै:॥63
अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र गुण कर्म स्वभावानुसार विभाजित किए गए हैं।
वेद का निम्न मन्त्र वर्ण व्यवस्था का आधार माना जाता है-
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य कृत:।
ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥64
अर्थात् मानव समाज को यदि समष्टि रूप में एक शरीर मानें तो ब्राह्मण इसके मुख, क्षत्रिय इसके बाहू, वैश्य इसका मध्य भाग तथा शूद्र इसके पैर रूप में उत्पन्न हुए हैं।
चारों वर्णों के कर्तव्यों का उल्लेख निम्न मन्त्र में आता है-
ब्राह्मणे ब्राह्मणं क्षत्राय राजन्यम्।
मरुद्भ्यो वैश्यं तपसे शूद्रम्॥65
अर्थात् ज्ञान के लिए ब्राह्मण, रक्षा कार्य के लिए क्षत्रिय, आदान-प्रदान के लिए वैश्य तथा श्रम साध्य कार्यों के लिए शूद्र होता है।
प्रत्येक समाज में ज्ञानी, शूरवीर, कृषक-व्यापारी, श्रमिक- ये लोग होते ही हैं। ये सब मिलकर ही कोई समाज या राष्ट्र बनाते हैं। ये भेद स्वाभाविक हैं, कृत्रिम नहीं हैं, क्योंकि ये स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्तियाँ हैं।66 प्रवृत्ति के आधार पर ही मनुष्य की किसी भी कार्य में रुचि अथवा अरुचि होती है। यजुर्वेद के 30 वें अध्याय में अनेक प्रकार के कार्यों के विभाजन का उल्लेख आता है, जो सामाजिक व्यवस्था के लिए आवश्यक है।
वैदिक व्यवस्था के अनुसार ‘वर्ण‘ स्थायी अथवा जन्म से नहीं है। ये ‘गुण-कर्म-स्वभावानुसार‘ बदलते रहते हैं। मनुस्मृति में उल्लेख है-
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जातमेवन्तु विद्याद्वैश्यास्तथैव च॥67
अर्थात् ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो सकता है तथा शूद्र ब्राह्मणता को प्राप्त हो जाता है। क्षत्रिय से उत्पन्न हुआ भी इसी प्रकार अन्य वर्ण में चला जाता है तथा वैश्य दूसरे वर्ण में चला जाता है।
आपस्तम्ब धर्म सूत्र में भी इस बात का स्पष्ट उल्लेख है-
धर्मचर्यया जघन्यो वर्ण:
पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ।
अधर्मचर्यया पूर्वा वर्णो
जघन्यं जघन्यं वर्णमाद्यते जातिपरिवृत्तौ॥68
अर्थात् धर्माचरण से निम्न वर्ण अपने से उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है तथा वह उसी वर्ण में गिना जाता है, जिसके वह योग्य होता है। उसी प्रकार अधर्माचरण से उत्तम वर्णवाला मनुष्य निम्न वर्ण को प्राप्त होता है तथा उसी में गिना जाता है।
वैदिक दृष्टि से इन वर्णों में सामाजिक दृष्टि से ऊँच-नीचता न होकर मात्र योग्यता एवं गुण कर्म स्वभावानुसार ही निम्नता अथवा उत्तमता होती है। जैसे आजकल भी प्रथम श्रेणी से लेकर चतुर्थ श्रेणी तक अधिकारी तथा कर्मचारी योग्यता पर आधारित होते हैं, वैसे ही वैदिक व्यवस्था में है।
वैदिक ऋषि शूद्र को हीनदृष्टि से नहीं देखते थे तथा न ही उसे नीच मानते थे। शूद्र को पैरों से उत्पन्न हुआ बताया गया है। समाज अथवा राष्ट्र के पांव शूद्र हैं अर्थात् सारा समाज शूद्रों पर आधारित है। राष्ट्र का आधार शूद्र है, राष्ट्र की बुनियाद शूद्र है।69 शतपथ ब्राह्मण में शूद्र को पृथ्वी की उपमा दी गई है। शूद्र को ‘पूषा‘ अर्थात् पालन करने वाला कहा गया है-
स शौद्रं वर्णमसृजत पूषणमियं वै पूषेयं
हीदं सर्वं पुष्यति यदिदं किं च ॥70
यजुर्वेद में अन्य वर्णों सहित शूद्र में भी तेज की वृद्धि की कामना की गई है-
रुचं नो धेहि ब्राह्मणेषु रुचं राजसु नस्कृधि।
रुचं विश्येषु शूद्रेषु मयि धेहि रुचा रुचम्॥71
हे परमात्मन्। हमारे ब्राह्मणों में तेजस्विता दो। हमारे क्षत्रियों में तेजस्विता दो। हमारे वैश्यों और शूद्रों में तेजस्विता दो। मुझे अखण्ड तेजस्विता से युक्त करो।
इस मन्त्र में समस्त समाज में तेजस्विता की कामना की गई है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारों समाज के अंग हैं। चारों वर्णों की उन्नति, उनकी तेजस्विता समाज की तेजस्विता होती है। अत: शूद्र को हीन मानना अथवा दीन अवस्था वाला बनाना ऋषियों को अभीष्ट नहीं था। (क्रमश:)
सन्दर्भ सूची
58. काशिका - 3.3.69
59. निरुक्त - 2.1.4
60. ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वर्णाश्रम विषय
61. मनुस्मृति - 1.31
62. श्रीमद्भगवद्गीता - 4.13
63. श्रीमद्भगवद्गीता - 18.41
64. यजुर्वेद संहिता - 31.11
65. यजुर्वेद संहिता - 30.5
66. वेद में विविध प्रकाश के राज्यशासन
(श्रीपाद् दामोदर सातवलेकर)
67. मनुस्मृति - 10.65
68. आपस्तम्ब धर्मसूत्र - 2.5.11.10, 11
69. यजुर्वेद सुबोध भाष्य (श्रीपाद् दामोदर सातवलेकर)
70. शतपथ ब्राह्मण - 14.4.2.25
71. यजुर्वेद संहिता - 18.48 - आचार्य डॉ. संजयदेव (दिव्ययुग-अक्टूबर 2014)
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