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सामाजिक पर्यावरण (3)

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Social Environment

समाज में जो लोग विद्या प्राप्त कर सकते हैं वे द्विज होते हैं अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य। जो विद्या प्राप्त नहीं कर सकते- वे शूद्र बन जाते हैं। शतपथ ब्राह्मण में वर्णित सोमयज्ञ की दीक्षा के प्रसंग में राक्षस या अनार्य लोगों को भी ब्राह्मण बनाने का उल्लेख मिलता है-
अथात्राद्वा जायते यो ब्राह्मणो यो यज्ञाज्जायते।
तस्मादपि राजन्यं वा वैश्यं वा ब्राह्मण इत्येव ब्रूयात्।
ब्राह्मणो हि जायते यो यज्ञाज्जायते॥72

अर्थात् जो यज्ञ में दीक्षित होता है वह ब्राह्मण बन जाता है। इसलिए चाहे वैश्य हो, चाहे राजा हो, चाहे अन्य हो- यदि वह दीक्षित है तो उसके लिए ‘अयं ब्राह्मण:‘ यही बोलना चाहिए। क्योंकि जो यज्ञ से पैदा होता है- वह ब्रह्मवीर्य से ही उत्पन्न होता है।73

‘वर्ण-व्यवस्था‘ गुर्णकर्मानुसार ही थी। इसका प्रमाण इस बात से भी मिलता है कि उपनयन (विद्याध्ययन के पूर्व का संस्कार) के लिए उपस्थित बालक से केवल उसका नाम ही पूछने का उल्लेख मिलता है, जाति या वर्ण नहीं- को नामासि॥74

अत: सबको उन्नति करने का समान अवसर था। जनक जन्म से क्षत्रिय थे, परन्तु बाद में उनके ब्राह्मण होने का उल्लेख मिलता है- ततो ब्रह्म जनक आस॥75

ऋषि (ब्राह्मण) याज्ञवल्क्य द्वारा जनक से अग्निहोत्र सीखने का उल्लेख मिलता है- स होवाचग्निहोत्रं याज्ञवल्क्य वेदितूमित्याग्निहोत्रं सम्राडिति॥76

इसी प्रकार यजुर्वेद वाङ्मय में ‘वर्ण परिवर्तन‘ के और भी अनेक उदाहरण मिलते हैं।
निम्न मन्त्र में वेदों का ज्ञान चारों वर्णों तथा अन्य सब के लिए होने का उल्लेख है-
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च॥77

अर्थात् इस कल्याणकारी पवित्र वेदवाणी का ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अपने तथा पराये सभी लोगों के लिए उपदेश किया गया है। अभिप्राय यह है कि मानव मात्र का कल्याण करने वाला वेद का ज्ञान किसी देश, जाति या वर्ग विशेष की सम्पत्ति नहीं है। यह पवित्र ज्ञान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के अतिरिक्त देशी-विदेशी, परिचित अपरिचित सबके लिए है।

अच्छे सामाजिक पर्यावरण के लिए यह आवश्यक है कि लोग सुशिक्षित हों। समाज के विद्वानों का दायित्व है कि वे निष्कपट होकर लोगों को अच्छे विद्या तथा सत्यव्यवहार आदि गुणों से सुभूषित करें। निम्न मन्त्रों में विद्वानों के कर्त्तव्य का उल्लेख है-
उदुतिष्ठ स्वध्वरावा नो देव्या धिया।
दृशे च भासा बृहता सुशक्वनिराग्ने याहि सुशस्तिभि:॥78

अर्थात् हे अच्छा व्यवहार करने वाले विद्वानो! आप निरन्तर पुरुषार्थ से उन्नति को प्राप्त होकर अन्यों को भी उन्नत करो। शुद्ध विद्या और शिक्षा से युक्त बुद्धि और क्रिया से हम लोगों की रक्षा करो। हे अग्नि के समान प्रकाशमान् ! अच्छे पवित्र पदार्थों के विभाग करनेवाले आप तर्क के साथ देखने को बड़े प्रकाशरूप सूर्य के तुल्य सुन्दर प्रशंसित गुणों के साथ विद्याओं को प्राप्त करके हमे भी विद्या से प्रकाशित करने की कृपा करो।
ऊर्ध्वऽऊ षु णऽऊतये तिष्ठा देवो न सविता।
ऊर्ध्वो वाजस्य सनिता यदञ्जिभिर्वाघद्भिर्विह्वयामहे॥79

अर्थात् हे अध्यापक विद्वान ! आप ऊपर आकाश में रहने वाले प्रकाशक सूर्य के समान हमारी रक्षा आदि के लिए अच्छे प्रकार स्थित हूजिए। आप प्रकाश करने वाली किरणों के समान ज्ञान, विद्या और न्याय आदि गुणों से प्रभावित होकर हमें भी प्रकाशित कीजिए, इसलिए हम आपको विशेष करके बुलाते हैं।

समाज में सब वर्गों तथा वर्णों में सहकार होना चाहिए, तभी समाज की उन्नति होती है। निम्न मन्त्र में सबके सहकार का उल्लेख है-
इन्द्रवायू बृहस्पतिं सुहवेह हवामहे।
यथा न: सर्व इज्जन: संगत्यां सुमना असत्॥80

अर्थात् सुन्दर आह्वान के योग्य इन्द्र और वायु को तथा बृहस्पति देव को इस यज्ञ में बुलाते हैं। जिससे हमारे सभी लोग संगठन में सुन्दर मन वाले हों।

इन्द्र शक्ति का देवता है, वायु प्रगति का देवता है तथा बृहस्पति ज्ञान का देवता है। इन्द्र समाज में शक्ति, सामर्थ्य तथा उत्साह देता है। इससे समाज की उन्नति तथा विकास होता है। वायु निरन्तर बहता है, गतिशील है- इसी प्रकार समाज में भी कर्मठता होनी चाहिए। शक्ति का विकास हो और कार्य करने की क्षमता हो, तभी समाज प्रगति की बात सोच सकता है। ‘बृहस्पति‘ ज्ञान, विवेक तथा सद्बुद्धि का प्रतीक है। शक्ति, कर्मठता तथा विवेक- तीनों के एकत्रित होने से समाज में सद्बुद्धि आती है तथा समाज आगे बढता है।

वैदिक समाज में स्त्रियों को यथोचित स्थान प्राप्त था। माता, पत्नी, बहिन आदि के रूप में स्त्रियाँ आदर की पात्र थीं। मातृरूप में नारी सदा पूजनीया रही है। वैदिक संस्कृति में माता को ‘माता निर्माता भवति‘ कहकर निर्माण करने वाली कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण में ‘मातृमान् पितृमान्, आचार्यवान्‘ 81 कहते हुए एक सुशिक्षित व्यक्ति के निर्माताओं में माता को सर्वप्रथम रखा गया है। इसी से माता का अतिशय महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। वैदिक आचार्य शिक्षा समाप्त होने पर शिष्य को माता की देवता की तरह पूजा करने का उपदेश देता है- मातृदेवो भव॥82 अर्थात् तुम माता में देवबुद्धि रखना।

नारी को पुरुष की ‘अर्धांगिनी‘ कहा गया है, अर्थात् नारी पुरुष का आधा अंग है- अथो अर्द्धो वा एष आत्मन: यत्पत्नी ॥83

नारी के बिना यज्ञ अपूर्ण है, अत: सपत्नीक यज्ञ करने का विधान है, अकेला पुरुष यज्ञ नहीं कर सकता- अयज्ञीयो वै एषऽपत्नीक: ॥84

अयज्ञो वा एष योऽपत्नीक: ॥85

पत्नी रूप में नारी साक्षात् ‘श्री‘ है, गृहलक्ष्मी है- श्रिया वा एतद् रूपं यत्पत्न्य:॥86

इसीलिए स्त्री की हत्या का निषेध किया गया है- न वै स्त्रियं घ्नन्ति॥87

‘पारस्कर-गृह्यसूत्र‘ में स्त्रियों की गौरवमयी गाथा का गुणगान किए जाने का उल्लेख आता है-
तामद्य गाथां गास्यामि या स्त्रीणामुत्तमं यश:॥88

वैदिक पुरुष तो स्वर्ग के भोग की आकांक्षा भी अकेला नहीं करता। शतपथ ब्राह्मण में वाजपेय यज्ञ में यज्ञीय यूप के सहारे सीढी पर चढता हुआ पति, पत्नी से कहता है कि आओ हम दोनों साथ-साथ स्वर्गारोहण करें- जायऽएहि स्वो रोहावेति रोहावेत्याह जाया॥89

वैदिक युग में स्त्रियों को सभाओं में बोलने का पूरा अधिकार था।90 राजा जनक की सभा में विदुषी गार्गी द्वारा ऋषि याज्ञवल्क्य से दर्शन विषय में अनेक प्रश्‍न पूछने का उल्लेख है।91 स्पष्ट है कि पर्दा-प्रथा तो थी ही नहीं तथा स्त्रियाँ शिक्षित तथा विदुषी होती थी। बृहदारण्यकोपनिषद् के एक प्रकरण में स्त्रियों का उपहास किए जाने को निन्दनीय कहा गया है।92

वैदिक समाज में अतिथि सत्कार का बहुत महत्त्व है। अतिथि को साक्षात् ‘देवता‘ कहा गया है- अतिथि देवो भव।93

स्वामी दयानन्द सरस्वती लिखते हैं- अतिथि उसको कहते हैं कि जिसकी कोई तिथि निश्‍चित न हो अर्थात् अकस्मात् धार्मिक, सत्योपदेशक, सबके उपकारार्थ, सर्वत्र घूमने वाला पूर्ण विद्वान्, परम योगी, संन्यासी गृहस्थ के यहाँ आवे तो उसको प्रथम पाद्य, अर्घ और आचमनीय- तीन प्रकेार का जल देकर, पश्‍चात् आसन पर सत्कारपूर्वक बिठालकर, खान-पानादि उत्तमोत्तम पदार्थों से सेवा-सुश्रूषा करके उनको प्रसन्न करे। पश्‍चात् सत्संग कर उनसे ज्ञानोपदेश ग्रहण करके अपना चाल-चलन भी उनके सदुपदेशानुसार रखे।94

अतिथि सत्कार वैदिक सामाजिक गृहस्थों का प्रधान कर्त्तव्य है। आपस्तम्ब के अनुसार ‘अतिथि‘ वही है जो अपने धर्म में निरत रहने वाले गृहस्थ के यहाँ केवल धर्म के प्रयोजन से जाता है- स्वधर्मयुक्तं कुटुम्बिनमभ्यागच्छति धर्मपुरस्कारो नाऽन्य-प्रयोजन: सोऽतिथिर्भवति॥95

यदि परिवार के सभी सदस्यों के भोजन कर चुकने के बाद भी अतिथि आवे तो उसके भोजन का प्रबन्ध करना चाहिए। क्योंकि गृहस्थों के लिए अतिथि सत्कार नित्य किया जाने वाला प्राजापत्य यज्ञ है- स एष प्राजापत्य: कुटुम्बिनो यज्ञो नित्यप्रतत:॥96

वैदिक गृहस्थ को, अतिथि आया हुआ हो तो उसके भोजन कर चुकने के बाद ही स्वयं भोजन करना होता है। शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि यह अनुचित है कि किसी मनुष्य के घर अतिथि आवें और वह उनको खिलाए बिना स्वयं खा ले- तन्न्वेवानवक्लृप्तं यो मनुष्येष्वनश्‍नत्सु पूर्वोऽश्‍नीयात्॥97

इससे भी समाज में परस्पर सम्मान की भावना का विनियोग होता है, जो कि संगठन के लिए परम आवश्यक है। एकता और दृढता के लिए यह व्यवहार महत्त्वपूर्ण होता है। इससे सहकार, सह-अस्तित्व तथा सदाचार तीनों का सामाजिक विकास होता है।• (क्रमश:)
सन्दर्भ सूची
72. शतपथ ब्राह्मण - 3.2.1.40
73. शतपथ ब्राह्मण विज्ञान भाष्य - खखख,
पण्डित मोतीलाल शास्त्री
74. शतपथ ब्राह्मण - 11.5.4.1
75. शतपथ ब्राह्मण - 11.6.2.10
76. शतपथ ब्राह्मण - 11.6.2.5
77. यजुर्वेद संहिता - 26.2
78. यजुर्वेद संहिता - 11.41
79. यजुर्वेद संहिता - 11.42
80. यजुर्वेद संहिता - 33.86
81. शतपथ ब्राह्मण - 14.6.10.2, 5,11,1.4
82. तैत्तिरीयोपनिषद - 1.11
83. तैत्तिरीयोपनिषद - 6.1.8.5
तैत्तिरीयोपनिषद - 3.3.3.5
84. शतपथ ब्राह्मण - 5.1.6.10
85. तैत्तिरीय ब्राह्मण - 12.2.2.6
86. तैत्तिरीय ब्राह्मण - 3.9.4.7
87. शतपथ ब्राह्मण - 11.4.3.2
88. पारस्कर गृह्यसूत्र - 1.7.2
89. शतपथ ब्राह्मण - 5.2.1.10
90. बृहदारण्यकोपनिषद् - 3.6
91. बृहदारण्यकोपनिषद् - 3.6
92. बृहदारण्यकोपनिषद् - 6.4
93. तैत्तिरीय ब्राह्मण - 1.11
94. सत्यार्थ प्रकाश, चतुर्थ समुल्लास
95. आपस्तम्ब धर्मसूत्र - 2.6.5
96. आपस्तम्ब धर्मसूत्र - 2.7.1
97. शतपथ ब्राह्मण - 2.1.4.2• (दिव्ययुग - दिसंबर 2014)


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