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समाज निर्माण में नारी का उत्तरदायित्व

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Womens Responsibility in Building Society

उक्त शीर्षक पर विचार करने के पूर्व हमें यह विचार करना होगा कि समाज का क्या अर्थ है, जिसके निर्माण में नारी के दायित्व की अपेक्षा की जाती है। व्यक्तियों के समुदाय को समाज कहते है। बड़े-बड़े उद्योगों, ऊंचे-ऊंचे भवनों तथा अन्य नाना सुख साधनों का नाम समाज नहीं है। निश्‍चय ही नारी का क्षेत्र आज पहले की अपेक्षा पर्याप्त विस्तृत है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नारी आज पुरुषों के समान ही गतिशील है। आज वह ऊँचे पदों पर प्रतिष्ठित है। आज वह शिक्षिका है, मन्त्री, मुख्यमन्त्री, डॉक्टर है, इंजीनियर है, वैज्ञानिक है, उद्योगों की संचालिका है गायिका है, विधानसभा में है, प्रधानमन्त्री तथा राष्ट्रपति भी है। जीवन का कोई भी क्षेत्र आज ऐसा नहीं, जहाँ नारी की पहुँच न हो या उसका योगदान न हो। इतना सब होते हुए भी नारी का मुख्य कर्त्तव्य उससे छूट गया। इस सब पचड़े में पड़कर या तो नारी को उसकी पूर्ति का अवकाश ही नहीं है या फिर इस ओर उसका उपेक्षा भाव है। और वह दायित्व है व्यक्ति निर्माण का। यह कार्य अन्य सब की अपेक्षा अति महत्त्वपूर्ण है। इसी के कारण तो उसे माता का उच्च स्थान मिला था, जिसके विषय में कहा गया है- माता निर्माता भवति। माँ ही उसके बच्चे की वास्तविक निर्मात्री है। इसीलिए तो माँ को बच्चे का प्रथम गुरु कहा गया है।

‘मातृमान् पुरुषों वेद’ का यही अर्थ है। वह जो संस्कार, जो शिक्षा बच्चे को दे सकती है, विश्‍व में कोई भी शिक्षणालय तथा मानव नहीं दे सकता। प्रत्यक्ष रूप से देखने में तो यही आ रहा है कि आज नारी को अपने इस महान कर्तव्य का बोध ही नहीं है। आज वह धन एवं नौकरियों के पीछे भाग रही है, जैसे कि पुरुष। कहने को कहा जाता है कि आज नारी पुरुष के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चल रही है। किन्तु इस चलन में उसका स्वरूप बिगड़ गया। नारी जो सुशीलता, त्याग, तपस्या, लज्जा, सौम्यता, नैतिकता एवं धर्म की प्रतिमूर्ति थी, उसका यह स्वरूप आज तिरोहित होता दिखलायी दे रहा है। इस प्रकार उसका अपना स्वरूप ही स्थिर नहीं रह पा रहा है तो वह मानव का निर्माण कैसे करेगी। इसके लिए उसके पास न समय है, न ही भावना।

इतिहास उठाकर देखें तो सम्पुष्ट है कि मानव के निर्माण में उनकी माताओं तथा पत्नियों ने कितनी भूमिका का निर्वाह किया है। स्वामी विवेकानन्द जी से जब अमेरिकन महिला ने यह पूछा कि आपने इस प्रकार की शिक्षा, ऐसे विचार किस शिक्षणालय में प्राप्त किए हैं, मैं भी अपने बच्चों को वहाँ भेजना चाहती हूँ, तो विवेकानन्द उदास होकर बोले वह शिक्षणालय अब टूट चुका है, क्योंकि वह मेरी माँ थी।

महात्मा गाँधी शिक्षा के लिए प्रथम बार विदेश जाने लगे तो उनकी धर्मपरायण माँ ने उनसे प्रतिज्ञा कराई कि वहाँ जाकर शराब नहीं पिओगे तथा वेश्यागमन से दूर रहोगे। महात्मा गाँधी जी ने दोनों ही पतित कार्यों से पृथक रहकर इस सम्बन्ध में अपनी माँ का उपकार माना है। आज जब माँ ही शराब के नशे में धुत्त रहती है तो वह अपनी सन्तान को क्या शिक्षा देगी? छत्रपति शिवाजी को सिंहगढ के किले की ओर इंगित करके माता जीजा बाई ने कहा था, शिवा! यह किला तुम्हारे पूर्वजों का है, जो इस समय मुगलों के अधिकार में है। शिवाजी तभी प्रतिज्ञा करते हैं कि माँ! मैं यह किला पुनः लेकर रहूँगा।

शिवाजी ने अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण भी की। थोड़ा और भूतकाल की ओर देखें तो हमें विदुषी माता मदालसा की याद आती है, जिसने अपने बच्चों को बाल्यावस्थाओं में ही आध्यात्मिक ज्ञान दे दिया कि वे संसार से विरक्त हो गये, वह शिक्षा थी-
शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि।
संसारमायापरिवार्जितोऽसि॥

हे पुत्र ! तुम शुद्ध तथा ज्ञान स्वरूप हो। संसार माया से अलग हो। मदालसा के पति राजा थे। राजा ने कहा भगवती! इस राज्य को कौन सम्भालेगा? तब मदालसा ने एक पुत्र को क्षत्रियत्व की शिक्षा देकर राज्य का अधिकारी भी बनाया। आज कितनी माताएं बच्चों को इस प्रकार की उदात्त शिक्षा प्रदान करती हैं! उनके पास ऐसा करने के लिए समय ही कहाँ है? जब एक महिला प्रातः 8 बजे ही नौकरी रूपी दायित्व की पूर्ति हेतु निकलकर शाम को थकी मान्दी घर लौटेगी तथा घर आकर उसे भोजन भी बनाना पड़ेगा, तो उसके पास बच्चों की शिक्षा का समय एवं सामर्थ्य ही कहाँ रह जायेगा।

नौकरी, धन तथा उच्च पद प्राप्ति की अपेक्षा सन्तान का निर्माण बहुत कठिन है, जो कि आज मातृशक्ति ने छोड़ दिया है। नारी का दूसरा कर्तव्य था अपने पति कुल की आन्तरिक गृहव्यवस्था को सम्भालना। इसके लिए उसे परिवार के प्रति अपने को समर्पित कर देना होता था। इस समर्पण भाव को दर्शाते हुए अथर्ववेद में कहा गया है कि एक नववधु पतिकुल में जाकर वहाँ पूर्णतः इस प्रकार विलीन हो जाए, जैसे कि एक नदी समुद्र में लीन हो जाती है। वह परिवार की अभिवृद्धि में, पारिवारिक जनों की उन्नति में सहयोग दे, उसका यही धर्म है।

यहाँ प्रगतिवादी प्रश्‍न करते हैं कि इस तरह तो नारी का क्षेत्र संकुचित हो जायेगा। उसकी क्षमताओं का क्या लाभ होगा? शिक्षा को प्राप्त करके भी एक नारी घर में सन्तान उत्पन्न करके उन्हें सम्भालती रहे तथा परिवार की सेवा करती है, तो उसकी शिक्षा का क्या लाभ? जो लोग ऐसा प्रश्‍न करते हैं, वे नहीं जानते कि शिक्षा का अर्थ क्या है? शिक्षा का अर्थ व्यक्ति का सम्पूर्ण विकास करना है। उसे पशुत्त्व से मनुष्यत्त्व की ओर ले जाना है। शिक्षा का उद्देश्य नौकरी या धन कमाना नहीं है, अपितु जीवन निर्माण करना है। आज यही तो भूल हो रही है कि शिक्षा को रोजगार से जोड़ा जा रहा है।

प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति रोजगार चाहता है। वह इसे अपना अधिकार समझता है तथा रोजगार के अभाव में सरकार से भत्ते की आशा करता है। सरकार भला इतने रोजगार, इतनी नौकरियाँ कहाँ से लायेगी। शिक्षा इसलिए थी कि शिक्षित होकर, शिक्षा के द्वारा अपने मन तथा मस्तिष्क का पूर्ण विकास करके व्यक्ति किसी भी काम में लग जाए, वहीं सफल होगा। शिक्षा के बिना एक अच्छा व्यापारी, अच्छा दुकानदार, अच्छा राजनेता, अच्छा समाजसेवक नहीं बना जा सकता। यहाँ तक कि अशिक्षित मनुष्य तो खेती भी ठीक प्रकार से नहीं कर सकता। आजीविका के लिए कोई भी कार्य करने में कोई हानि नहीं है।

आज तो महिलाओं को नौकरी के बिना सन्तोष नहीं। यह गलत धारणा है। एक शिक्षित महिला ही घर को उत्तम रीति से चला सकती है। वही बच्चों को भी सुशिक्षा तथा सुसंस्कार प्रदान कर सकती है, अशिक्षित महिला नहीं। घर चलाने के लिए पाकविद्या का भी ज्ञान होना चाहिए। सामान्य रोग एवं उसके उपचार की जानकारी उसे होनी चाहिए। अर्थशास्त्र का ज्ञान भी आवश्यक है, तभी तो वह घर की अर्थव्यवस्था को रख सकेगी। पैसा कमाना तथा नौकरी करना ही नारी का धर्म नहीं है, अपितु घर को सम्भालना भी उसका दायित्व है। इसलिए उसका एक नाम गृहिणी भी है। उसकी सेवा, त्याग, तपस्या के बल पर ही तो पूरे परिवार की उन्नति होती है। वह इसमें सहयोगिनी है। इसलिए परिवार की उन्नति का श्रेय उसे भी जाता है।

हम भामती नामक एक त्यागमयी नारी का उदाहरण सुनते हैं कि उसके पति वेदान्तशास्त्र के शांकर भाष्य पर टीका लिखने में इतने तल्लीन हो गये कि अपने गृहस्थधर्म का भी पालन न कर सके। भामती चुपचाप उनकी सेवा करती रही। ग्रन्थ की समाप्ति पर उधर से ध्यान हटा तो भामती का त्याग, तपस्या, सहयोग देखकर उनके पति इतने अभिभूत हुए कि उस टीका का नाम ही भामती रख दिया। शायद आज ग्रन्थकर्त्ता का नाम कोई जाने न जाने, किन्तु भामती का नाम सब जानते हैं। वह अपने त्याग तथा सेवा से अमर हो गयी, क्योंकि उस ग्रन्थ के लिखने में उसका भी सहयोग था। इतनी प्रसिद्धि तो उसे पृथक से कोई ग्रन्थ लिखकर भी नहीं मिलती। इसलिए यह भ्रम दिल से निकाल देना चाहिए कि परिवार की सेवा करके स्त्री का क्षेत्र संकुचित हो जायेगा या उसकी शक्तियाँ निरर्थक हो गायेंगी।

आजकल भी ऐसी माताएं मिल जायेंगी जो योग्य होते हुए भी स्वयं नौकरी न करके अपनी क्षमताओं का उपयोग अपनी सन्तानों को सुयोग्य बनाने में करती हैं। यहाँ पर दिल्ली के रामजस कॉलेज के वनस्पति विभाग के पूर्व अध्यापक डॉ.एम.पी. जैन का उदाहरण दिया जा सकता है, जो गर्व से कहते है कि मैंने अपनी धर्मपत्नी को नौकरी इसलिए नहीं कराई कि इनके कारण ही हमारे तीनों लड़के डॉक्टर हैं। एक माता के लिए यह क्या कम उपलब्धि है? इस त्याग तपस्या से उसका यश अक्षुण्ण है। दूसरा उदाहरण भी इसी कॉलेज के दूसरे प्राध्यापिका हैं। धन पर्याप्त है, किन्तु वे पश्‍चाताप के स्वर में स्वीकार करते हैं कि पत्नी को नौकरी कराना सन्तानों एवं स्वयं उनके भी हित में नहीं रहा।

वर्तमान काल की व्यापक एवं गम्भीर समस्या है कि आज बच्चे संस्कारविहीन एवं उच्छृंखल होते जा रहे हैं। यहाँ तक कि माता-पिता का सम्मान भी वे नहीं करते, जिस कारण वृद्धावस्था में माता-पिता को परिवार से अलग भी कर दिया जाता हैं तथा अन्य भी अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं। यह समस्या अशिक्षित लोगों में कम, शिक्षित समुदाय में विशेषकर शहरों में अधिक है। इसलिए भारत में भी वृद्धाश्रम की परम्परा जन्म लेती जा रही है। यह पाश्‍चात्य संस्कृति की ही देन है तथा माता-पिता द्वारा सन्तानों का घर पर बाल्यावस्था में सुशिक्षा न दिये जाने का ही परिणाम है।

वैदिक संस्कृति में नारी को बहुत ऊँचा स्थान दिया गया है। उसे वेद में स्योना, सुशेवा, सुमंगली, प्रतारणी कहा गया है। वह पूरे घर की सेवा करने वाली। उसके कष्टों को दूर करने वाली तथा घर को पार लगाने वाली, उसकी स्वामिनी है। प्राचीन शास्त्रों में पत्नी पर कहीं भी धन कमाने का दायित्व नहीं डाला गया।

अतीत में महिलाओं के अधिकारों को सीमित करके उन पर अनेक प्रतिबन्ध लगा दिये गये। यह स्त्री जाति के साथ अन्याय था, अत्याचार था। महर्षि दयानन्द तथा अन्य समाज सुधारकों के प्रयास से उस दशा में परिवर्तन आया तथा आज महिला पूर्णतः स्वतन्त्र है। उसे पुरूषों के समान ही सब अधिकार प्राप्त है। किन्तु प्रतीत होता है कि अनेक महिलाओं ने इस स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके अपनी जीवन शैली को ही बदल डाला है। स्त्री-पुरुष की अपेक्षा अधिक शालीन, सात्विक तथा धर्मपरायण होती थी। पुरुषों के दोष उनमें नहीं होते थे। किन्तु आज के वातावरण में आज भौतिकवाद ने, नौकरीवाद ने वे सभी दोष महिलाओं में उत्पन्न कर दिये, जो कि उनको पतन की ओर धकेल रहे हैं। किसी ऊँचे पद को प्राप्त करके आज महिला भी रिश्‍वत लेती है, भ्रष्टाचार के अनुचित तरीके अपनाती है। वह अपने पुरुष मित्रों के साथ बैठकर शराब पीती है। सिगरेट पीना तो उसके लिए आम बात हो गयी है। अनेक घोटालों में किसी पद पर प्रतिष्ठित सुशिक्षित महिला का भी सहयोग रहता है। अनेक महिलाएं जेब काटते हुए भी पकड़ी गयी हैं। दिल्ली पुलिस की नारकोटिक्स शाखा के उपायुक्त श्री डी.एल. कश्यप के अनुसार उनकी शाखा 1999 से अब तक 32 महिलाओं को मादक द्रव्यों के मामलों में गिरफ्तार कर चुकी है। एक पुलिस अधिकारी के अनुसार 1985 में मादक द्रव्य निरोधक कानून बनने के उपरान्त अफीम-गांजा बेचने वाले कई आपरेटरों ने ज्यादा मुनाफा देने वाले स्मैक जैसे पदार्थों पर अपना ध्यान केन्द्रित कर दिया। नवभारत टाइम्स का यह निष्कर्ष चौंका देने वाला है कि दिल्ली में स्मैक, चरस, हशीश, गांजा आदि नशे की दवाओं की आपूर्ति में आधी संख्या महिलाओं की है। इस व्यवसाय में वे स्वयं को स्थापित कर चुकी हैं। क्या यही समाज निर्माण है, जिसमें महिलाएँ अपना योगदान देकर राष्ट्र को पतन के गर्त में धकेल रही हैं।

न केवल इतना ही, अपितु पाश्‍चात्य संस्कृति आज नारी पर, विशेषकर उच्चशिक्षा प्राप्त युवतियों पर इस रूप में सवार है कि आज अपनी सभी मर्यादाओं का अतिक्रमण कर दिया है। आज उसकी मान्यताएँ बदल गयी हैं। बिना विवाह ही पुरुष के साथ रहने तथा सन्तोनोत्पत्ति को आज प्रगतिशील महिलाएँ अपना रही हैं। आज शिक्षित लड़कियाँ भूख-प्यास के समान ही काम को भी केवल शारीरिक आवश्यकता बतलाकर किसी भी पुरुष के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करने में परहेज नहीं करती। यह स्त्री जाति के पतन की पराकाष्ठा है। इससे तो समाज अधःपतन की ओर ही जायेगा। वेद में कहा गया है कि स्त्री को पैर के टखने तक अपने शरीर को ढककर रखना चाहिए। किन्तु आज शिक्षित नारियों में, विशेषकर अभिनेत्रियों में तो नग्न प्रदर्शन की होड़ लगी है। जो भी जितना भी अधिक नग्न प्रदर्शन कर सके, वह उतनी ही सफल अभिनेत्री है। जब वह स्वयं ही नग्न होने में गौरव अनुभव कर रही है तो अखबारों तथा विज्ञापनों से स्त्री के नग्न या अर्धनग्न चित्रों पर उसे क्या आपत्ति हो सकती है। यदि इसी को सामाजिक उन्नति तथा स्वतन्त्रता कहते हैं तो पतन का मार्ग और क्या होगा?

समाज के निर्माण में महिलाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका से इन्कार नहीं किया जा सकता। सरकारी सेवा में किरण बेदी जैसी महिला पुलिस अफसर एक कीर्तिमान स्थापित करती है तो सामाजिक क्षेत्र में मेधा पाटेकर जैसी देवियाँ भी कार्य कर रही हैं। इसी प्रकार अन्य क्षेत्रों में भी महिलाएँ सक्रिय हैं। शराबबन्दी में भी महिलाओं ने प्रमुख भूमिका निभाई है। किन्तु प्रश्‍न है कि ऐसी महिलाएं कितनी हैं? बहुत कम। इसके विपरीत उन महिलाओं की संख्या पर्याप्त है जिन्होंने भोगवाद में अपेन आपको झोंक दिया तथा जो केवल पैसे की मशीन बनकर रह गई है। जिनके पास उनके बच्चों के लिए भी समय नहीं है, जिन्होंने अपने चरित्र, नैतिकता, धर्म, संस्कृति को दूर फेंककर वर्तमान पाश्‍चात्य शिक्षा, सभ्यता, संस्कृति को ओढ लिया है, समझ में नहीं आता कि ऐसी महिलाओं से समाज एवं राष्ट्र का क्या लाभ होगा? इस दुरावस्था को देखते हुए तो महात्मा गांधी का वह कथन याद आता है कि उनके अनुसार महिलाओं का क्षेत्र घर के अन्दर है, बाहर नहीं। घर तथा बाहर दो बराबर के पहलू हैं। प्राचीन परम्परा में सोच-समझकर ही नारी को घर का महत्वपूर्ण क्षेत्र सौंप दिया गया था। आज घर से बाहर आकर उसका अपना स्वरूप ही बिगड़ गया तो वह समाज के निर्माण में क्या योगदान देगी?

हे जन्मदात्री जननी! हे लालनकर्त्री ललना! हे निर्माणकर्त्री मातः। हे नर की अर्धागिनी! हे सुखदायिनी सुशीला ! हे घर की आधर गृहिणी! ये सब दुकान, कार्यालय, व्यापार, होटल एजेन्सियाँ, रेल, वायुयान, क्लब तो तुम्हारे बिना भी चल जायेंगे, किन्तु तुम्हारे बिना सन्तान का निर्माण नहीं हो सकता। तुम्हारे त्याग, सेवा, प्रयत्न के बिना घर में सुख शान्ति नहीं हो सकती। बाह्य योगदान की अपेक्षा यह योगदान तुम्हें गौरव प्रदान करेगा। हाँ यदि तुम्हें सामाजिक प्रतिष्ठा ही प्राप्त करनी है तो ऐसे भी अनेक कार्य हैं, जिनसे समाज का सुधार भी होगा तथा तुम्हें समाज में गौरवपूर्ण स्थान भी मिलेगा। आज दहेज का दानव आकाश में बादल की तरह समाज में सर्वत्र व्याप्त होता जा रहा है। इस दानव के नीचे न जाने कितनी अबलाएँ दबकर छटपटा कर प्राण त्याग रहीं हैं। हे आज की प्रगतिशील नारी! क्या तुम्हें उनकी चीख पुकार सुनाई नहीं देती? क्या उनके शवों की ओर तुम्हारा ध्यान नहीं जाता? क्या वे तुम्हारी ही सजातीय नहीं हैं? नारी जाति के जागरूक हुए बिना इस दानव का अन्त नहीं हो सकता। घर में महिलाएँ ही सोचती हैं कि बहू अच्छा दहेज लेकर आए। कहीं-कहीं तो स्वयं कन्या को भी इसकी भूख रहती है। यदि विवाह योग्य लड़कियाँ तथा उनकी माताएं सोच लें कि दहेज के लोभियों से विवाह नहीं करायेंगी तो यह कुप्रथा आसानी से रूक जायेगी। इसके अतिरिक्त हे पूज्य नारी! तू शराब, व्यभिचार तथा भ्रष्टाचार के विरुद्ध व्यापक आन्दोलन चला सकती है। सौन्दर्य प्रतियोगिता के बहाने से तुम्हारे जिस नग्न स्वरूप का प्रदर्शन किया जा रहा है, क्या वह तुम्हारी गरिमा के अनुरूप है? घर के सदस्यों को ऐसा न करने के लिए तुम विवश कर सकती हो। इस प्रकार सामाजिक सुधार के अनेक कार्य हैं, जो नारी को प्रतिष्ठा भी दिलायेंगे। यह तभी होगा जब आज पुरुषों की होड़ में तेजी से पतन की ओर भागती हुई नारी अपने कदमों को वहाँ से रोक ले। - डॉ. रघुवीर वेदाचार्य (दिव्ययुग- अप्रैल 2019)

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