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व्यावहारिक पर्यावरण (3)

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गृहस्थाश्रम की आधारशिला ‘वैदिक विवाह‘ की मूलभावना ही दो हृदयों का सदा के लिए परस्पर मिलन है। विवाह संस्कार के आरम्भ में ही वर-वधू दोनों मिलकर निम्नांकित मन्त्र का उच्चारण करते हैं-
समञ्जन्तु विश्‍वे देवा: समापो हृदयानि नौ।
सं मातरिश्‍वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ॥13

अर्थात् हे विद्वान् लोगो ! हम दोनों अपनी प्रसन्नता पूर्वक गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर रहे हैं। हम दोनों के हृदय जल के समान शान्त तथा मिले हुए रहें। जैसे प्राणवायु सभी को प्रिय है, उसी प्रकार हम भी एक दूसरे के प्रिय बनेंगे। जैसे परमात्मा इस सारे संसार को धारण कर रहा है, उसी प्रकार हम भी एक दूसरे को धारण करेंगे तथा जिस प्रकार उपदेशक अपने श्रोताओं से प्रेम करता है, उसी प्रकार हम भी एक दूसरे से दृढ प्रेम करेंगे।

वर-वधू के परस्पर मिलन की जो उपमा इस मन्त्र में दी गई है वह अनुपम है। संसार में अन्य पदार्थ मिल जाएँ तो उन्हें पृथक् किया जा सकता है। उदाहरणार्थ रेत में मिली हुई चीनी को चींटी पृथक् कर देती है। ऐसा कहा जाता है कि दूध में मिले हुए पानी को ‘हंस‘ नामक पक्षी पृथक् कर देता है। परन्तु दो विभिन्न स्थानों से लाए हुए जलों को पृथक् करना किसी भी स्थिति में सम्भव नहीं है। संसार मेें न तो कोई ऐसा पशु-पक्षी है और न आज तक वैज्ञानिक ही किसी ऐसे यन्त्र का आविष्कार कर सकेंहैं, जो दो अलग-अलग स्थानों के मिले हुए पानी को पृथक् कर सकें। जैेसे दो विभिन्न स्थानों के जल मिलकर अपना नाम और रूप छोड़कर एक हो जाते हैं, उसी प्रकार वर-वधू यह कामना करते हैं कि उनके हृदय भी उन जलों की भांति मिलकर एक हो जाएँ।

इसी सन्दर्भ में वर, वधू से अपने अनुकूल होने की कामना करता है-
यदैषि मनसा दूरं दिशोऽनुपवमानो वा। हिरण्यपर्णो वैकर्ण: स त्वा मन्मनसां करोतु असौ॥14

हे वरानने ! जैसे अपनी इच्छा से पवित्र वायु अथवा जैसे तेजोमय जल आदि को किरणों से ग्रहण करने वाला सूर्य दूरस्थ पदार्थों तथा दिशाओं को प्राप्त होता है, वैसे ही तुम प्रेमपूर्वक अपनी इच्छा से मुझको प्राप्त होती हो। उस तुमको वह परमेश्‍वर मेरे मन के अनुकूल करे।

वधू का हाथ पकड़े हुए वर विवाहमण्डप में आकर वधू से, उसके सुशील होने की कामना करता है-
अघोरचक्षुरपतिघ्न्येधि शिवा पशुभ्य: सुमना सुवर्चा:। वीरसूर्देवृकामा स्योना शन्नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥15

हे वधू ! तू कोमल दृष्टि से देखना, पति का अहित मत करना, पशुओं के लिए हितकर होना। उच्च मन वाली, तेजस्विनी, वीर पुत्रों को जन्म देने वाली, देवभक्त तथा हितकर होना। हमारे परिवार के मनुष्यों तथा पशुओं के लिए सुखकर होना।

स्त्री का कर्तव्य है कि वह सबको प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखे। उसकी दृष्टि में कटुता तथा क्रूरता न हो। यदि कटुता का वातावरण उत्पन्न करेगी तो परिवार का सामंजस्य समाप्त हो जाएगा। उसका स्वयं का जीवन भी सुखमय नहीं रहेगा तथा वह दूसरों के लिए समस्या बन जाएगी। पति का अहित न सोचना और न करना- यह पत्नी का प्रमुख कर्तव्य है। परिवार के मनुष्यों के प्रति ही नहीं, अपितु पशुओं के प्रति भी उसके हृदय में स्नेह का भाव होना चाहिए। अत: मन्त्र में कहा गया है कि वह ‘द्विपदे चतुष्पदे शम्‘ मनुष्य और पशु- सभी के लिए सुखदायी हो। वैदिक संस्कृति से ओत-प्रोत स्त्री सदा ही अपने पति तथा परिवार का हितचिन्तन करती है। विवाह के समय लाजाहोम करते हुए वधू अपने पति की दीर्घायु तथा बन्धु-बान्धवों की समृद्धि की कामना करती है-
इयं नार्युपब्रुते लाजानावपन्तिका ।
आयुष्मानमस्तु मे पतिरेधन्तां ज्ञातयो मम स्वाहा॥16
अर्थात् यह नारी लाजा होम करते हुए कहती है कि मेरा पति दीर्घजीवी हो तथा मेरे कुटुम्बीजन (पितृकुल तथा पतिकुल) समृद्धियुक्त हों।

इसी अवसर पर वधू अपने पति की समृद्धि तथा स्वयं में और अपने पति में परस्पर दृढ् अनुराग होने की भी कामना करती है-
इमाँल्लाजानावपाम्यग्नौ समृद्धिकरणं तव।
मम तुभ्यं च संवनन तदग्निरनुमन्यतामियं स्वाहा॥17

अर्थात् आपकी (पति की) समृद्धि हेतुभूत इन लाजाओं को मैं अग्नि में डालती हूँ। यह मेरे और आपके परस्पर अनुराग को दृढ करे- इसके लिए यह यज्ञाग्नि या अग्रणी पुरोहित तथा यह जनसभा अनुमति दे।

दम्पत्ती के मन तथा कर्म समान हों-
सं वो मनांसि सं व्रता समु चित्तान्याकरम्।
अग्ने पुरीष्यधिपा भव त्वं न इषमूर्जं यजमानाञ्च धेहि॥18
अर्थात् मैं दम्पती के मन, कर्म और चित्त को सर्वथा संगत (एकरूप) करता हूँ। ऐश्‍वर्यशाली अग्नि। तुम हमारे पालक होओ। तुम यजमान को अन्न और बल दो- धन-धान्य तथा समृद्धि से युक्त करो।

विवाह के समय वधू का हृदय स्पर्श करते हुए वर कहता है-
मम व्रते ते हृदयं दधाामि मम चित्तमनु चित्तं ते अस्तु।
मम वाचमेकमना जुषस्व प्रजापतिष्ट्वा नियुक्तु मह्यम्॥19

हे वधू ! मैं तुम्हारे हृदय को मेरे शास्त्रोक्त नियम में स्थापित करता हूँ। मेरे चित्त के अनुकूल तेरा चित्त हो। मेरी वाणी को एकाग्र मन होकर प्रेम से सेवन करो, प्रजापाक परमात्मा तुमको मेरे लिए नियुक्त करे।
इसी प्रकार वधू भी वर के हृदय को स्पर्श करके इसी उपरोक्त मन्त्र को बोले।

एक अन्य प्रसंग में (गर्भाधान प्रसंग) भी पति, पत्नी का हृदय स्पर्श करता हआ कहता है-
यत्ते सुसीमे हृदयं दिवि चन्द्रमसि श्रितम् वेदाहं तन्मां तद्विद्यात्॥20
अर्थात् हे सुन्दर सीमन्त वाली। जो तेरा हृदय द्युलोक में स्थित चन्द्रमा में स्थित है, मैं उसको जानूं तथा वह (तुम्हारा हृदय) मुझे जाने। निम्न मन्त्र में दम्पती के सकुशल रहने की कामना की गई है-
प्रजामस्मासु धेहि अरिष्टाऽहं सह पत्या भूयासम्॥21

हे प्रभो ! हमें सन्तान दो। मैं अपने पति के साथ सकुशल रहूँ। दम्पत्ती का स्नेह सदा बढता रहे-
अग्ने शर्ध महतेसौभगाय तव द्युम्नान्युत्तमानि सन्तु।
सं जास्पत्यं सुयममा कृणुष्व शत्रूयतामभि तिष्ठा महांसि॥22
हे तेजस्वी व्यक्ति । तू अपने महान् सौभाग्य के लिए कटिबद्ध हो। तेरे यश तथा ऐश्‍वर्य उत्तम हों। तू अपने दाम्पत्य जीवन को अच्छा तथा संयमी बना। तू शत्रुता करने वालों के तेज और बल को अभिभूत कर दे।

वैदिक संस्कृति में विवाह-सम्बन्ध जीवन भर के लिए होता है। इसमें विवाह विच्छेद (तलाक) का विधान नहीं है। विवाह होने के बाद पति-पत्नी पूरे जीवन भर साथ रहते हैं। विवाह के समय ही ऐसी प्रतिज्ञाएँ तथा कामनाएँ की जाती है। विवाह के आरम्भ में ही वधू को वस्त्र प्रदान करते हुए वर कहता है-
जरां गच्छ परिधत्स्व वासो भवाकृष्टीनाम- भिशस्तिपावा।
शतं च जीव शरद: सुवर्चा रयिं च पुत्राननुसंव्ययस्वायुष्मतीदं परिधत्स्व वास इति॥23

हे आयुष्मति ! तुम संसार में कामादि से आकृष्ट करने वाले व्यक्तियों के लिए अभिशाप बनो। मेरे साथ सौ वर्ष तक जीओ और मेरे साथ वृद्ध हो। तेज, धन और सन्तान को उत्पन्न करो। इस वस्त्र को धारण करो।

विवाह संस्कार में पाणिग्रहण के मन्त्रों में भी पूरी आयु एक दूसरे के साथ रहने की प्रतिज्ञाएँ की जाती हैं-
गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथास:।
भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यं त्वादुर्गार्हपत्याय देवा:॥24

हे वधू ! मैं (पति) सौभाग्य के लिए तेरे हाथ को ग्रहण करता हूँ। तुम मुझ पति के साथ वृद्धावस्था पर्यन्त रहो। ऐश्‍वर्यशाली, उदात्त, संसार के उत्पादक और धारक परमात्मा ने तथा सभी देवों ने गृह-स्वामित्व के लिए तुझको मुझे दिया है।

ममेयमस्तु पोष्या मह्यं त्वादाद् बृहस्पति:।
मया पत्या प्रजावति सं जीव शरद: शतम्॥25
हे वधू ! ज्ञान-निधान परमात्मा ने तुझको मुझे दिया है। यही तू मेरी पोषण करने योग्य पत्नी है। हे प्रजावति ! तू मुझ पति के साथ सौ शरद् ऋतु अर्थात् शतवर्ष पर्यन्त जीवन धारण कर।

‘ध्रुव दर्शन‘ कराते हुए भी वर, वधू को आजीवन अपने साथ रहने के लिए प्रेरित करता है-
ध्रुवमसि ध्रुवं त्वा पश्यामि ध्रुवैधि पोष्ये मयि।
मह्यं त्वादात् बृहस्पतिर्मया पत्या प्रजावती संजीव शरद: शतम्॥26
हे वधू ! मैं तुम्हें ध्रुव का दर्शन कराता हूँ, तुम ध्रुव के समान स्थिर बनो। तुम मेरे द्वारा पोषण के योग्य तथा कष्टादि के समय मेरा पोषण करने वाली मुझमें स्थिर होकर रहने वाली बनो। बृहस्पति (परमात्मा) ने तुमको मुझे दिया है। तुम मुझ पति के साथ सन्तानयुक्त होकर सौ वर्ष पर्यन्त सुखपूर्वक जीवित रहो।

विवाह के पश्‍चात् ‘गर्भाधान संस्कार‘ के समय भी पत्नी के सिर पर जल छिड़कते हुए पति यह भावना व्यक्त करता है कि हम जरावस्था तक साथ रहें-
जीर्य त्वं मया सहासाविति॥27
अर्थात् तुम मुझ पति के साथ जरावस्था को प्राप्त हो।

शतपथ ब्राह्मण में एक प्रसंग में शर्यात-पुत्री सुकन्या कहती है कि मेरे पिता ने जिसके साथ मेरा विवाह कर दिया है, जीवन भर उसके साथ रहूंगी-
यस्मै मां पितादान्नै वाहं तं जीवन्तऽहास्यामीति॥28
विवाह के बाद पति-पत्नी दोनों एक रूप हो जाते हैं।

इसलिए कोई किसी की पत्नी का उपहास न करे- तस्मादेवांविच्छ्रोत्रियस्य दारेण नोपाहसमिच्छेत् उत हि एवंवित् परोभवति॥29
अर्थात् इस कारण से पति-पत्नी के ऐक्य को जानने वाले श्रोत्रिय की पत्नी के साथ उपहास (हंसी मजाक) करने की इच्छा भी न करे। क्योंकि विवाह के पश्‍चात् पति-पत्नी दो नहीं रहे, अपितु एक हो गए हैं। व्यर्थ में किसी की पत्नी से उपहास करके उसका शत्रु बन जाना है। विवाहित स्त्री के साथ उपहास करना समाज में अपना सर नीचा करना है एवं जिसकी पत्नी के साथ उपहास किया जायेगा, वह इसे सहन नहीं करेगा तथा उपहास करने वाले का शत्रु बन जाएगा।• (क्रमश:)

सन्दर्भ सूची
13. पारस्कर गृह्यसूत्र- 1.4.14 ऋग्वेद - 10.85.47
14. पारस्कर गृह्यसूत्र- 1.4.15
15. पारस्कर गृह्यसूत्र- 1.4.16
16. पारस्कर गृह्यसूत्र- 1.6.2
17. पारस्कर गृह्यसूत्र- 1.6.2
18. यजुर्वेद संहिता- 12.58
19. पारस्कर गृह्यसूत्र- 1.8.8
20. पारस्कर गृह्यसूत्र- 1.11.9
21. यजुर्वेद संहिता- 37.20
22. यजुर्वेद संहिता- 33.12
23. पारस्कर गृह्यसूत्र- 1.4.13
24. पारस्कर गृह्यसूत्र- 1.6.3
25. आपस्तम्ब गृह्यसूत्र-2.4.14
26. पारस्कर गृह्यसूत्र- 1.8.19
27. पारस्कर गृह्यसूत्र- 1.11.4
28. शतपथ ब्राह्मण- 4.1.5.9
29. पारस्कर गृह्यसूत्र- 1.11.6• - आचार्य डॉ. संजयदेव, देवी अहिल्या विश्‍वविद्यालय इन्दौर द्वारा डॉक्टरेट उपाधि हेतु स्वीकृत शोध-प्रबन्ध (दिव्ययुग - जून 2014)