यजुर्वेद वाङ्मय में पर्यावरण : व्यावहारिक पर्यावरण
पति-पत्नी दोनों सखा हैं तथा मिलकर ही सब कार्यों की सिद्धि कर सकते हैं। इसी बात को वैदिक विवाह संस्कार के महत्त्वपूर्ण अंग ‘सप्तपदी‘ में दर्शाया गया है। दोनों वर-वधू एक साथ सात कदम रखते हुए सात वस्तुओं की कामना करते हैं-
एकमिषे द्वे अर्जे त्रीणि रायस्पोषाय चत्वारि। मयोभवाय पञ्च पशुभ्य: षड्ऋतुभ्य: सखे सप्तपदी भव सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वा नयतु॥30
अर्थात् प्रथम कदम अन्न के लिए, दूसरा बल के लिए, तीसरा धन वृद्धि के लिए, चौथा सुखोत्पत्ति के लिए, पांचवा पशु सम्पत्ति के लिए, छठा ऋतुओं के लिए तथा सातवां मित्रता के लिए। यहाँ वर कहता है कि इन सातों वस्तुओं की प्राप्ति के लिए तुम मेरे अनुकूल बनो। विष्णु रूप परमात्मा तुम्हें प्रेरित करे।
गृहस्थाश्रम की पूर्णता इसी में है कि पति-पत्नी दोनों एक दूसरे का जीवन भर साथ दें। वास्तव में पुरुष का जीवन स्त्री के बिना तथा स्त्री का जीवन पुरुष के बिना अधूरा है।
शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि पत्नी, पति की अर्धांग होती है, इसलिए किसी पुरुष का जन्म तब तक सार्थक नहीं होता, जब तक कि वह पत्नी नहीं प्राप्त कर लेता-
अर्धो वाऽएषऽआत्मनो यज्जाया तस्माद्यावज्जायां न विन्दते नैव तावत्प्रजायतेऽसर्वो हि तावद् भवत्यथ यदैव जायां विन्दतेऽथ प्रजायते तर्हि हि सर्वो भवति॥31
अर्थात् पत्नी उसका आधा भाग है जब तक स्त्री को नहीं पाता, प्रजा उत्पन्न नहीं होती तब वह अपूर्ण रहता है। ज्यों ही उसको पा जाता है, प्रजावान् हो जाता है तथा पूर्ण हो जाता है।
वैदिक विचारधारा में सन्तान का होना वंश वृद्धि के लिए आवश्यक है। सन्तान उत्पन्न करना यज्ञ माना गया है। इसीलिए स्त्रियों के शरीर की उपमा वेदी से दी गई है- तस्या वेदिरुपस्थ:॥32
गृहस्थाश्रम में पुत्र-प्राप्ति का बहुत महत्त्व है, क्योंकि पुत्र से ही पितृऋण से मुक्ति होना माना गया है- यदापिपेष मातरं पुत्र: प्रमुदितो धयन्। एतत् तदग्ने अनृणो भवामि अहतौ पितरौ मया। सम्पृच स्थ सं मा भद्रेण पृड्क्तं विपृच स्थ वि मा पाप्मना पृड्क्त॥33
अर्थात् मेरा पुत्र प्रसन्न होकर माँ का दूध पीता हुआ जो अपनी माँ को रगड़ता है, हे अग्नि ! इससे मैं पितृऋण से उऋण हो रहा हूँ। मैंने अपने माता-पिता की वंश परम्परा को विच्छिन्न नहीं किया है। हे देवो ! तुम संयोजक हो, मुझे सद्गुणों से संयुक्त करो। तुम वियोजक हो, मुझे पापों से पृथक् करो।
पुत्र का अर्थ किया जाता है: नरक या दुर्गति से बचाने वाला- पुन्नाम्नो नरकात् त्रायत इति पुत्र:॥
पुत्र-जन्म से पिता अपने माता-पिता तथा पूर्वजों के ऋण से उऋण होता है। कुलवृद्धि एवं वंश-परम्परा को अविच्छिन्न रखना प्रत्येक मानव का कर्त्तव्य है। वंश-परम्परा को पुत्रोत्पत्ति के द्वारा अविच्छिन्न रखा जाता है। अतएव पुत्रजन्म पर प्रसन्नता प्रकट की जाती है। बच्चा माँ का दूध पिए, माँ की गोद में खेले-कूदे तथा माँ के अंगों को धूलि-धूसरित करे, यह प्रसन्नता की बात मानी जाती है।
पिता, पुत्र को अंग-अंग से तू उत्पन्न हुआ है ऐसा कहता है-
अड्गादड्गात् सम्भवसि हृदयादधि जायसे।
आत्मा वै पुत्र नामासि स जीव शरद: शतम्॥35
हे पुत्र ! तू मेरे प्रत्येक अंग से उत्पन्न हुआ है, हृदय से प्रकट हुआ है। तू जो मेरा आत्मस्वरूप है- वह तू सौ वर्ष तक जीवित रह। कामना की जाती है कि पुत्र सुन्दर, आज्ञाकारी एवं आस्तिक हो-
पिशङ्गरूप: सुभरो वयोधा: श्रुष्टी वीरो जायते देवकाम:। प्रजां त्वष्टा विष्यतु नाभिमस्मे अथा देवानामप्येतु पाथ:॥36
अर्थात् सुनहरे रंग वाला, हृष्ट-पुष्ट, दीर्घायु, आज्ञाकारी, वीर और आस्तिक पुत्र हो, सृष्टिकर्ता देव हमारे लिए कुलवर्धक सन्तान दे तथा देवों का मार्ग हमें प्राप्त हो।
इस मन्त्र में पुत्र के गुणों का वर्णन किया गया है। पुत्र के गुण बताए गए हैं- सुन्दर,हृष्ट-पुष्ट, दीर्घायु आज्ञाकारी तथा आस्तिक। वह वंश की वृद्धि करने वाला हो। पितृऋण से या माता-पिता के ऋण से उऋण होने के लिए आवश्यक है कि पुत्र आज्ञाकारी हो। इससे माता-पिता का ही हित नहीं होता है, अपितु पुत्र की भी श्रीवृद्धि होती है। संसार में माता-पिता से अधिक बालक का कोई हितचिन्तक नहीं है। पुत्र स्वस्थ और हृष्ट पुष्ट हो, इसके लिए आवश्यक है कि उसका जीवन नियमित हो। आस्तिकता से जीवन पवित्र होता है तथा चारित्रिक उन्नति होती है।
वैदिक संस्कृति में पुत्र का होना आवश्यक माना जाते हुए भी पालन पोषण में पुत्र-पुत्री के मध्य कोई पक्षपात नहीं किया जाता। पुत्र का होना भी आवश्यक इस कारण माना गया, क्योंकि वंश परम्परा को वही आगे बढाता है तथा बुढापे में माता-पिता का सहारा बनता है। पुत्री तो विवाह होने पर दूसरी जगह चली जाती है। पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि पुत्र-पुत्री के लालन-पालन अथवा शिक्षा-दीक्षा में पक्षपात् किया जाता हो। पुत्री भी पुत्र की तरह वेदों का अध्ययन कर सकती थी।37 ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब माता-पिता विदुषी पुत्री के जन्म की कामना करते हैं-
अथ य इच्छेद् दुहिता मे पण्डिता जायेत सर्वमायुरियादिति तिलौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै॥38
अर्थात् जो कोई चाहे कि मेरी कन्या विदुषी होवे तथा सम्पूर्ण आयु को प्राप्त करे तो तिल के साथ ओदन (चावल) बनाकर घृत मिलाकर दोनों (पति-पत्नी) उस तिलौदन को खाएँ तो अवश्य ही ऐसी कन्योत्पादन में दोनों समर्थ होंगे।
वैदिक संस्कृति में पुत्र तथा माता का सबसे अधिक घनिष्ठ तथा प्रिय सम्बन्ध माना गया है। क्योंकि बालक का सर्वप्रथम सम्बन्ध तो माता से ही होता है। माता ही सन्तानों का प्रथम गुरु भी है । वह जैसा बनाना चाहती है, वैसी ही सन्तान बन जाती है। इसलिए स्वामी दयानन्द सरस्वती ‘सत्यार्थ प्रकाश‘ में लिखते हैं कि जितना माता से सन्तानों को उपदेश तथा उपकार पहुंचता है, उतना किसी से नहीं। जैसे माता सन्तानों पर प्रेम तथा उनका हित करना चाहती है, उतना अन्य कोई नहीं करता। इसलिए ‘मातृमान्‘ अर्थात् प्रशस्ता धार्मिकी विदुषी माता विद्यते यस्य स मातृमान्। धन्य वह माता है कि जो गर्भाधान से लेकर जब तक पूरी विद्या न हो, तब तक सुशीलता का उपदेश करे।39
निम्न मन्त्रों में माता के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है-
प्रागपागुदगधराक् सर्वतस्त्वा दिशऽआधावन्तु।
अम्ब निष्पर समरीविदाम्॥40
हे अपने सदुपदेश और सत्परामर्श से कृतार्थ करने वाली माँ ! पूर्व-पश्चिम उत्तर-दक्षिण सब दिशाएँ, दिग्वासिनी प्रजाएँ दौड़कर तुम्हारे पास आएँ। हे माँ ! तुम उन प्रजाओं का पालन करो, निस्तार तथा उद्धार करो। वे सब तुम्हारी निर्भय गोद में विश्राम करती हुई तुम्हारे प्रेम को जानें।
मा सु भित्था मा सु रिषोऽम्ब धृष्णु वीरयस्व सु।
अग्निश्चेदं करिष्यथ॥41
हे माँ ! तुम हममें फूट न पड़ने दो, तुम हमें हिंसा का पात्र मत बनने दो। तुम हमसे स्थिरतापूर्वक वीरता के कर्म कराओ। तुम और तुम्हारा अग्नि-तुल्य पुत्र दोनों मिलाकर महान् कार्यों को पूर्ण करेंगे।
सीद त्वं मातुरस्याऽउपस्थे विश्वान्यग्ने वयुनानि विद्वान्। मैनां तपसा मार्चिषाऽभिशोचीरन्तरस्यं शुक्रज्योतिर्विभाहि॥42
माता से विद्या, सुशिक्षा की आदि की कामना करने वाले हे पुत्र! तू माँ के समीप बैठ, सब विद्या-विज्ञानों का विद्वान् बन। तू माँ को सन्ताप से एवं शोक की ज्वाला से कभी शोकाकुल मत कर। माँ के सामीप्य में रहकर शुद्ध मन एवं शुद्ध आचरण की ज्योति से भासमान हो।
शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि न तो माता पुत्र को हानि पहुंचाती है तथा न पुत्र माता को हानि पहुँचाता है- न हि माता पुत्रं हिनस्ति न पुत्रो मातरम्॥43 क्रमश:
सन्दर्भ सूची
30. पारस्कर गृह्यसूत्र - 1.8.1,2
आपस्तम्ब गृह्यसूत्र- 2.4.15,16
31. शतपथ ब्राह्मण - 5.2.1.10
32. बृहदारण्यकोपनिषद् - 6.4.3
33. यजुर्वेद संहिता - 19.11
34. मनुस्मृति - 9.138
35. पारस्कर गृह्यसूत्र - 1.18.2
36. तैतिरीय संहिता - 3.1.11.2
37. तैतिरीय ब्राह्मण - 2.3.10
38. बृहदारण्यकोपनिषद् - 6.4.17
39. सत्यार्थ प्रकाश, द्वितीय समुल्लास
40. यजुर्वेद संहिता - 6.36
41. यजुर्वेद संहिता - 11.68
42. यजुर्वेद संहिता - 12.25
43. शतपथ ब्राह्मण - 5.2.1.18, 5.4.3.20 - आचार्य डॉ. संजयदेव, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इन्दौर द्वारा डॉक्टरेट उपाधि हेतु स्वीकृत शोध-प्रबन्ध (दिव्ययुग - जुलाई 2014)