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वीर सावरकर के शौर्यपूर्ण कारनामे-14

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Veer Savarkarसावरकर ने कहा- “यदि रशियन भारत पर राज करते तो वे हमें निःशस्त्र नहीं बनाते। आज साईबेरिया प्रान्त के स्थानीय लोगों में से अधिकारी व सैनिक सेनापति हैं। हमारे लोग भी सेनापति बना दिये जाते और मुगलों के खिलाफ जिस प्रकार हमने शस्त्र उठाया, उसी प्रकार हम उनके विरोध में भी शस्त्र उठाते और अधिक जल्दी स्वाधीन बन जाते।“ गृहमंत्री ने कहा- “तुम्हारे हिन्दू राजा होते तो अधिक ही क्रूरता करते। वे तो हाथियों के पैरों से अपराधी को कुचलवा देते थे।’‘ सावरकर बोले- “हाँ, अवश्य कुचलवा देते थे। कभी इग्लैंड में भी चोरी के अपराधी को घोड़ों के सहारे बाँधकर घसीटकर ले जाया जाता था। साधारण अपराधी भी फाँसी पाता था। चार्ल्स को भी फाँसी पर लटकाया गया था।‘’ किसी अधिकारी को ऐसा उत्तर कोई वीर बंदी ही दे सकता है।

सावरकर के घर से पत्र पहुँचा, पर कुछ आपत्तिजनक बातें (लंदन की पार्लियामेण्ट में केरहार्डी ने कहा था कि आयरलैंड में जनता खुलेआम विद्रोह की धमकियाँ देती थी, पर सरकार कुछ नहीं करती थी। परन्तु सावरकर जैसे हिन्दी क्रांतिकारी को पिस्तौल जमा करने के आरोप में पचास वर्ष काले पानी का दण्ड दे दिया जाता है।) होने के कारण पत्र उन्हें नहीं दिया गया, तो वे भी हड़ताल (तीसरी) में शामिल हो गये।

नानी गोपाल को अन्न त्यागे दो महीने हो गये थे । वह अस्थि पंजर का कंकाल बन गया था, फिर भी उस तरुण को आठ दिन तक हथकड़ियों में खड़े रहने की कठोरतम सजा और दे दी गई। सावरकर को दो हफ्तों की आड़ा बेड़ी की सजा दी गई । बाद में हथकड़ी और अन्त में साँकल-बेड़ी की सजा हुई । बंदियों का परस्पर बोलना सख्त मना कर दिया गया । एक दिन राजबन्दी खाने के लिए आंगन में खड़े थे और बारी उनके बीच में खड़ा था । नानी गोपाल अंगे्रजी में बोल उठा, “भाइयो ! हम सब जन्मत:स्वतंत्र हैं । परस्पर बोलने का हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है । हमारा शत्रु इस अधिकार को देखें कैसे छीनता है ?’’ ये शब्द निकलते ही बारी, मिर्जा खान तथा पठान वार्डरों ने उसे धर-दबोचा और कमरे में ले जाकर बन्द कर दिया । कमरे में बंद होने तक वह जोर-जोर से बोलता रहा । राजबन्दियों के हँसने से बारी क्रोध से लाल हो गया ।

मिर्जा खान पठान बाद में सावरकर की कोठरी के पास आया और बोला- ‘बड़े बाबू, यह नानी गोपाल आपका सच्चा शिष्य है। किन्तु एक हिन्दू इतना साहसी नहीं हो सकता। वह तो किसी पठान के बच्चे की तरह है।’’ सावरकर ने उत्तर दिया- “बड़े जमादार, तुम गलत समझ रहे हो । तुम पठान की औलाद हो । यदि नानी गोपाल तुम्हारे जैसा पठान का बच्चा होता तो स्वदेश की आजादी के लिए यहाँ जेल में नहीं पड़ा सड़ता । बारी का अपमान न करके तुम्हारी तरह उसके पाँव चाटता होता । परन्तु क्योंकि वह हिन्दू है, इसीलिए स्वाभिमानी व राष्ट्रभक्त शूर है ।’’ यह सुनकर मिर्जाखान चुपचाप खिसक गया ।

नानी गोपाल जैसे राष्ट्रभक्तों के प्रति सहानुभूतिवश अन्न त्यागकर मरने की आत्मघातक पद्धति का घोर विरोधी होते हुए भी, तीन दिन तक सावरकर ने भी अन्न ग्रहण नहीं किया । यह जानकर नानी गोपाल को बड़ा दु:ख हुआ । सावरकर ने उसे समझाया- “अन्न त्यागकर कायरों की तरह क्यों जीवन देते हो । अन्न तो झपटकर ले लो। अन्न खाकर शक्तिशाली बनो और काम त्याग दो।’’ हड़ताल भी सफल रही । राजनैतिक बंदियों को प्रथम श्रेणी के भोजन तथा वस्त्र दिये गये । खर्च के लिए कुछ राशि भी दी गई । सावरकर को ये सुविधाएं नहीं मिली ।

देशभक्त की परिभाषा यही नहीं है कि वह देश की रक्षा के लिए लड़कर अपने प्राण न्योछावर करे । जीवित रहकर अपने विभिन्न क्रियाकलापों से राष्ट्र की उन्नति व गौरव बढाने वाला व्यक्ति भी देशभक्त कहलाने का अधिकारी है । इसी प्रकार वीरता का लक्षण भी केवल लड़ना व मरना-मारना ही नहीं है । शास्त्रार्थ में विजय पाना भी वीरता कहलाती है । अज्ञान, अन्याय, अत्याचार, अभाव, आलस्य आदि पर विजय पाने वाला व्यक्ति वीर की उपाधि से अलंकृत किया जा सकता है । विपरीत परिस्थितियों में भी निराश न होकर निरन्तर आगे बढते रहने वाला व्यक्ति निश्‍चय ही वीर है ।

सावरकर को बंदी बनाते ही पुस्तकों व लेखन सामग्री से वंचित कर दिया गया था । अण्डमान में तो वे पुराने अखबार के टुकड़ों के लिए भी तरसते रहते थे । कवि, साहित्यकार, उपन्यासकार सावरकर अपने हृदय की भावनाओं को जेल की दीवारों पर सन के काँटे से लिखने लगे । प्रतिवर्ष दीवारों पर रंग सफेदी होने से उनकी रचना समाप्त हो जाती । इससे एक माह पूर्व ही वे अंकित सामग्री को कंठस्थ कर लेते । जेल में उन्होंने अनपढ बंदियों को पढाना शुरु कर दिया । धीरे-धीरे पुस्तकें व पत्रिकाएँ आने लगी और पुस्तकालय बन गया । बारी खूब विरोध करता, पर वीर अपने लक्ष्य की तरफ बढते रहे । हिन्दी भाषा और सत्यार्थप्रकाश का खूब प्रचार किया । सावरकर की दूरदर्शिता थी कि अंग्रेज यदि भारत को छोड़कर चले जाते हैं, तो भारत के अशिक्षित लोग राष्ट्र को नहीं सम्भाल पाएंगे। अत: इन्हें पहले से शिक्षित कर लो ।

शिक्षा के साथ-साथ सावरकर ने अण्डमान में धर्मान्तरण पर रोक और शुद्धि आन्दोलन को भी बड़ी कुशलता से चलाया । वहाँ अथवा समस्त भारत की जेलों में भी प्राय: मुसलमान वार्डनों को हिन्दू बन्दियों पर रखा जाता था और वे अपने अत्याचारों से उन्हें मुसलमान बनने को मजबूर करते थे ।

इसके लिए कभी-कभी जलेबी व तम्बाकू का लालच भी दिया जाता । इसके मूल में उनकी संकीर्ण मजहबी शिक्षा है, जो उन्हें एक हिन्दू को भी मुसलमान बना लेने से पाप माफ और जन्नत(स्वर्ग) में उपभोग के लिए अप्सराएँ मिलने का लालच देती है । सावरकर ने अपने चौदह वर्ष के जेल-अनुभव के बाद यह निश्‍चय कर लिया कि दिल्ली अथवा बम्बई की जामा मस्जिदें उतने हिन्दुओं का धर्मान्तरण नहीं कर सकती, जितने का कारागार के मुसलमान बन्दी व अधिकारी करा लेते हैं। इसमें हिन्दुओं की शुद्धि बंदी वाली संकीर्ण मानसिकता भी सहयोगी है।• (क्रमशः) - राजेश कुमार ’रत्नेश’

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