भ्रष्टाचार है क्या? चरित्र के बिगड़ने को भ्रष्टाचार कहते हैं। भ्रष्टाचार के अनेक रूप हैं। झूठ बोलना, चोरी करना और किसी को सताना ‘भ्रष्टाचार’ है। स्त्री-पुरुष के अनुचित सम्बन्ध भी भ्रष्टाचार हैं। परन्तु आजकल भ्रष्टाचार का शब्द एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त होता है अर्थात् यदि एक राज्य कर्मचारी को कुछ रुपए देकर उससे कोई काम करवा लिया जाए तो उसे भ्रष्टाचार कहते हैं।
आजकल देश में भ्रष्टाचार सीमाएँ लाँघकर बढ़ रहा है। बिना घूस दिये काम नहीं बनता। यह रोग इतना बढ़ चुका है कि असाध्य सा हो गया है। रोग बढ़ता गया ज्यूँ ज्यूँ दवा की।
जीवन के किस क्षेत्र में चले जाइए, जब तक मुट्ठी गर्म न होगी, काम बनेगा ही नहीं। न राज्य का डर और न धर्म का भय। अब तो यह महामारी धार्मिक क्षेत्र में भी फैल चुकी है। धार्मिक क्षेत्र में भी भ्रष्टाचार का उतना ही जोर है जितना बाहर है। और किसी में इतनी शक्ति नहीं कि वह इसे दबा सके अथवा घटा सके।
आज आप यह नहीं कह सकते कि जितने धार्मिक लोग हैं, वे भ्रष्टाचार से दूर हैं। यदि ऐसा होता तो बात कुछ इतनी कठिन न होती। एक युग अवश्य ऐसा था जब महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनुयायी इस प्रकार के थे।
श्रेष्ठाचार की एक घटना- मुझे स्मरण है जब मैं बिजनौर में था, दारागंज में गंगा तट पर एक मेला लगा करता था। इसमें आर्यसमाज का प्रचार शिविर भी लगाया जाता था। मैं शामियाना के बाहर कुर्सी पर बैठा था कि एक छोटी सी कन्या आई। मैंने उसके हाथ पर एक रुपया रख दिया। वह लेकर भाग गई। थोड़े समय के पश्चात् वह लौटकर आई और मेरे पास वह रुपया रखकर चली गई।
इस पर एक सज्जन ने कहा कि यह निहालसिंह की पुत्री है। निहालसिंह चौकीदार है। वह घूस नहीं लेता। वह स्वल्प वेतन में निर्वाह करता है। उसका भोजन तो अत्यधिक है, इसलिए शकरकन्द खाकर निर्वाह करता है। ऐसे व्यक्ति की पुत्री आपसे रुपया कैसे ले सकती है? उसकी माँ ने भेजा होगा।
उन दिनों स्वल्प वेतन पाने वाले अनेक आर्यसमाजी थे, जो कभी घूस नहीं लेते थे। यदि किसी के पाँव डगमगा जाते तो सोसायटी में उसकी अपकीर्ति होती थी। एक और सज्जन थे। रेलवे में उन्होंने थर्ड क्लास में यात्रा की और उसी के किराये का बिल बनाया। लोगों ने कहा कि तुम्हारा तो अधिकार है इण्टरक्लास के बिल का। परन्तु उन्होंने कहा, “यह अनैतिकता है।’’ उन्होंने तदनुसार करने से इन्कार कर दिया। उन दिनों ऐसे लोगों का सम्मान होता था, परन्तु आज उन्हें मूर्ख समझा जाता है।
अब प्रश्न उतन्न होता है कि बड़ा अपराधी कौन है? घूस लेने वाला अथवा देना वाला? राज्य के नियमानुसार दोनों ही अपराधी हैं। परन्तु जो अपराध दोनों पक्ष अपने-अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए करें उसका निवारण कठिन है। कारण? यह अपराध दोनों को लाभान्वित करता है। अतः मेरी दृष्टि में घूस देने का दोष घूस लेने से कम नहीं।
एक घटना का वृत्तान्त यहाँ देता हूँ। मैं ऐश बाग लखनऊ से ताँगे पर बैठा। साथ में एक और व्यक्ति था। जब चुंगी की चौकी आई तो वह कुछ माल लेकर उतरा और हमें कम से कम आधा घण्टा तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। जब वह लौटा तो उसके हाथ में आधा तरबूज था तथा वह चुंगीवालों को कोस रहा था।
मुझे भी बड़ा क्रोध आया कि चुंगीवाले क्यों इतना तंग करते हैं? परन्तु जब बातचीत हुई तो पता चला कि हमारे साथी के पास कुछ चुंगीकर वाला सामान था। वह चुंगी देना नहीं चाहता था। चुंगी वाला घूस लेने से सकुचाता था। आधे घण्टे के हठ व वाद-विवाद के पश्चात् उसने आधा तरबूज देकर अपना पिण्ड छुड़वाया। उस समय मुझे पता चला कि घूस देने वाले कितने हठी होते हैं कि एक कर्त्तव्यनिष्ठ ईमानदार व्यक्ति के लिए जान छुड़ाना कठिन हो जाता है।
एक सेठ जी कहते थे कि कोई कितना ही ईमानदार क्यों न हो, हम तो घूस दिये बिना नहीं रहते। मैंने कई बेचारों को देखा है कि उन्हें घूस देने वालों ने बदनाम कर दिया। यदि वे घूस ले लेते तो अपयश से बच जाते।
अंग्रेजी का एक शब्द ‘टिप’ है। इसका भाव है किसी चपड़ासी आदि को कुछ देना अर्थात् कुछ देकर कर्मचारी को इस बात के लिए मनवाना कि वह इस कार्य को पहले कर दे। इस प्रकार से घूस देने की प्रथा का जन्म हुआ। जब कर्मचारी अभ्यस्त हो गया तो वह घूस लेने के लिए अकारण विलम्ब करने लगा।
इसलिए जब तक अनुचित काम करवाने की संसार में आवश्यकता बनी रहेगी। तब तक घूस का बाजार भी गर्म रहेगा। घूस के दोषों से सब सुपरिचित हैं। इस पर भी कोई डंके की चोट से यह नहीं कह सकता कि वह इस बुराई से बचा हुआ है।
वक्ताओं की यह स्थिति है कि मुट्ठी गर्म कर दीजिए और जिस प्रकार का चाहें भाषण करवा लें। ऐसे लोग क्या मेरी अथवा आपकी बात सुनेंगे?
एक बार देहली में एक सज्जन ने आकर यह शिकायत की कि उसने कई सहस्र रुपये का उनको धोखा दिया। साथ यह भी कहा कि आप ऐसे व्यक्तियों को क्यों नहीं कुछ कहते या डाँटते?
मैंने कहा, “श्रीमान जी! जब आपको वोटों की आवश्यकता होती है तो आप ऐसे वक्ताओं को खरीदते हैं। क्या आप उनको जानते नहीं थे? आज आप उनकी शिकायत करते हैं। क्या वे लोग घूस नहीं लेते जिन्होंने संसार के सुधार का बेड़ा उठाया है?’’
घूस लेने वाले शासकीय कार्यालयों में ही नहीं हैं, प्रत्युत वहाँ भी हैं जहाँ से स्वर्ग को निकट माना जाता है। क्या हमारे मध्य ऐसे लोग नहीं हैं जिन्होंने पब्लिक से सहस्रों रुपए साहित्य प्रकाशन के बहाने बटोरे और एक पाई तक का लेखा-जोखा न दिया, न ही पुस्तकें छपी? क्या ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जिन्होंने सहस्रों रुपए यज्ञ के बहाने एकत्र किये और दसवाँ भाग भी हवन पर खर्च न करके अन्य-अन्य निजी कार्यों पर व्यय कर दिये? क्या आप इसे भ्रष्टाचार न कहेंगे?
यज्ञों के नाम पर भ्रष्टाचार- एक और घटना है- एक सज्जन ने यज्ञ के बहाने घी के कई टीन ग्रामीण लोगों से एकत्र किये। थोड़ा सा हवन करके शेष डकार गए। यमुना के किनारे जो शान्ति यज्ञ हुआ था उसमें सेठों ने लाखों रुपए व्यय किये। प्रत्येक ब्राह्मण के चरण धो-धोकर एक-एक गिनी भेट की जाती थी। उनकी वाणी बन्द हो जाती थी। वह रुपया हवन पर तो व्यय नहीं किया गया।
परमेश्वर का घूस- बहुत से लोगों की दृष्टि में यह परमात्मा के लिए घूस देने की एक विधि है। परमात्मा घूस लेता है या नहीं, परन्तु परमात्मा के एजेण्ट तो उसके नाम पर घूस लेते हैं। जब तक धार्मिक घूस का बाजार गर्म है, सांसारिक घूस अथवा सांसारिक भ्रष्टाचार चलता रहेगा। कारण? धर्म ही एक ऐसी वस्तु है जो मनुष्य की आत्मा को शुद्ध कर सकता है। यदि धर्म मर जाए तो मनुष्य मर जाता है। सब सदाचार की नींव ही नहीं तो भ्रष्टाचार तो फैलेगा ही।
विवाहों पर आडम्बर भी भ्रष्टाचार का एक रूप है- यदि कन्या अथवा वर पक्ष वाले ने किसी धार्मिक-सामाजिक संस्था अथवा धर्मगुरु को दान दे दिया तो उसके धनोपार्जन के सब अनुचित साधनों पर पर्दा पड़ जाता है। भ्रष्टाचार कैसे दूर हों? यह समझ से बाहर है। - गंगाप्रसाद उपाध्याय
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