मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम
कोई पूछे कि भारतीय संस्कृति की परिभाषा क्या है, तो बेहिचक उत्तर दिया जा सकता है कि राम का उदात्त चरित्र ही भारतीय संस्कृति है। एक पूर्ण पुरुष में जितने भी अच्छे गुण हो सकते हैं, राम उन सबके पुंज हैं। उन्होंने अनेकविध कष्ट झेलते हुए भी घर-परिवार, समाज, राष्ट्र और अखिल विश्व के समक्ष त्याग, स्नेह, शील और नैतिकता के जो आदर्श प्रस्तुत किये, उससे भारत का जन-जन प्रभावित है। यहाँ की चप्पा-चप्पा भूमि पर रामत्व की छाप है। रामायण घरेलू जीवन का महाकाव्य है।
ऐसा ग्रन्थ किसी अन्य देश या संस्कृति में उपलब्ध नहीं।
पिता की आज्ञा शिरोधार्य- कैकेयी ने भले ही राष्ट्र की तत्कालीन परिस्थितिवश राजा दशरथ से दो वर मांग लिये हों, पर राजा दशरथ ने कभी अपने मुंह से राम को वन जाने के लिए नहीं कहा था। वे मन ही मन चाहते थे कि राम वन न जाएं।
माता कौसल्या उन पर दबाव डाल रही थीं कि माँ का महत्व पिता से बढ़कर है। वे माँ का आदेश मानकर वन न जाएं। गुरु वसिष्ठ, मन्त्रीमण्डल के सभी सदस्य, पूरा रनिवास और समस्त प्रजाजन राम के पक्ष में थे। लक्ष्मण फुंफकारते हुए कह रहे थे-
रघुनन्दन, इसके पहले कि कोई वनवास की बात जाने, आप राज्य पर अधिकार कर लीजिए। मैं आपकी बगल में धनुष लेकर खड़ा हो जाऊंगा। आप काल के समान युद्ध कीजिए। मैं भरत का पक्ष लेने वालों को बाणों से बींध दूंगा। पिताजी कैकेयी का साथ देंगे तो उन्हें भी दण्डित करूंगा।
यदि श्रीराम वनवास को स्वीकार न करते तो कोई उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता था। ऐसी अनुकूल परिस्थिति में भी उन्होंने इतना बड़ा त्याग किया, किसलिए? इसलिए कि श्रद्धेय पिता द्वारा दिए वचन झूठे न हो जाएं। इस प्रकार उन्होंने राज्य का सुख त्याग कर और 14 वर्षों के कठोर व्रत को स्वीकार कर पितृ भक्ति का अभूतपूर्व आदर्श प्रस्तुत किया। पिता ने भी पुत्र वियोग में प्राण त्याग कर चरम वात्सल्य का परिचय दिया।
राम ने परिवार के सभी सदस्यों का ध्यान रखा। यहाँ तक कि इतना बड़ा दण्ड देने वाली सौतेली माता कैकेयी की भी उन्होंने निन्दा नहीं की। पंचवटी में जाड़े की ऋतु में कोहरे से ढंकी गोदावरी में स्नान के लिए जाते हुए लक्ष्मण ने कहा था- ऐसी शीत ऋतु में महात्मा भरत तड़के सवेरे उठकर सरयू में नहाते और ठण्डी धरती पर सोते होंगे। ऐसा धर्मात्मा पुत्र पाकर भी कैकेयी इतनी क्रूर कैसे हो गयीं? राम बोले- लक्ष्मण, रहने दो, माता कैकेयी की निन्दा न करो। इस समय तुम केवल इक्ष्वाकुनाथ भरत की चर्चा करो।
मर्यादा की स्थापना- विमाता कैकेयी ने राम के चरित्र के विषय में जो शब्द बोले, वे विचारणीय हैं। जब भरत ननिहाल से लौटकर माता कैकेयी से मिले और उन्हें ज्ञात हुआ कि राम को वनवास दिया गया है तो उन्होंने चकित होकर पूछा कि क्या राम ने किसी ब्राह्मण का धन हरण किया है? किसी निरपराध व्यक्ति की हत्या की है अथवा क्या उनका मन परायी नारी की ओर चला गया है? उन्हें किसलिए वनवास का दण्ड दिया गया है? कैकेयी ने बताया- बेटा, राम ने न तो किसी का धन छीना है और न किसी निरपराध की हत्या की है। वह तो परायी नारी की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखता- न राम: परदारान् चक्षुभ्यामपि पश्यति। मानस में भी कहा गया है- जेहि सपनेहु परनारि न हेरी। उड़िया रामायण के अनुसार राम परायी नारी को बहिन या माता के समान मानते थे। सीता ने भी स्वीकार किया था कि उनमें ही राम का गहन अनुराग है। उन्होंने दाम्पत्य जीवन की मर्यादा स्थापित की थी। राम के चरित्र से प्रभावित होकर अन्य रामायणी पात्र भी उनके जैसा आचरण करते थे। लक्ष्मण ने भाभी सीता के चरणों को छोड़कर कभी आंख उठाकर उनके सौन्दर्य को नहीं देखा था।
आरम्भ से ही राम जनमत को आदर देने वाले लोकप्रिय शासक रहे थे। जब वे अयोध्या को छोड़कर वन की ओर चले थे तो उनके पीछे ब्राह्मण, ऋषि आदि ही नहीं रजक (धोबी), तन्तुवाय (दर्जी) और अनेक प्रकार के शिल्पी (कारीगर) आदि जन भी अपने-अपने घर छोड़कर चल पड़े थे। राम उन्हें कौशलपूर्वक ही लौटा सके थे। चित्रकूट से दण्डकारण्य की ओर चलते समय अनेक ऋषियों ने उन्हें घेरकर कहा था- राम, चित्रकूट से लेकर पम्पा सरोवर तक ऋषियों की हड्डियों के ढेर लगे हैं। इन्हें राक्षसों ने मारा है। राम, तुम नगर में रहो या वन में, तुम्हीं हमारे शासक हो। इन राक्षसों से हमारी रक्षा करो। राम ने उन्हें रक्षा का आश्वासन दिया था। मानस में भी राम ने कहा है- निसिचरहीन करउँ महि, भुज उठाइ प्रन कीन्ह।
वे धनुष की प्रत्यंचा टंकारते हुए और भारी पगों से धरती को कंपाते हुए दक्षिण की ओर बढ़े थे। मानो वे राक्षसों को चुनौती दे रहे थे। उनके इस कृत्य से ही स्पष्ट है कि सीताहरण न भी हुआ होता तो भी उन्होंने राष्ट्रविरोधी राक्षसों से टक्कर ली होती।
कुछ लोगों को भ्रम है कि राम ने एकाध बार मर्यादा का उल्लंघन किया है। जैसे, उन्होंने बाली को छिपकर मारा। बाल्मीकि रामायण को ध्यान से पढ़ा जाए तो पता चलता है कि राम ने बाली को छिपकर नहीं मारा था। बाली ने उनकी ओर वृक्ष और बड़ी-बड़ी शिलाएं फेंकी थीं। राम ने अपने वज्र जैसे वाणों से विदीर्ण कर उसे मार गिराया था-
क्षिप्तान् वृक्षान् समविध्य विपुलाश्च तथा शिला।
बाली वज्र समैर्वाणेर्वज्रेणेव निपातत:॥
वस्तुत: सुग्रीव और सभी मन्त्रियों को विश्वास हो गया था कि बाली मायावी असुर के साथ युद्ध करते हुए मारा गया है। तभी मन्त्रियों ने सुग्रीव का अभिषेक कर वानरों की प्रथा के अनुसार तारा को उसकी पत्नी बना दिया था। इसमें कुछ भी अनुचित नहीं था। लेकिन बाली जब असुर को पछाड़कर आया तो उसने बिना सोचे-समझे निर्दोष सुग्रीव को पीट-पीटकर राज्य से बाहर खदेड़ दिया और अनुज वधू रूमा को बलात् अपनी पत्नी बनाया। सुग्रीव के जीते जी उसने यह अपराध किया था।
उसने इससे भी बड़ा एक और अपराध किया था- आतंकवादी राक्षस निरन्तर आर्यावर्त की ओर आते रहते थे। वे उत्पात मचाकर ऋषि संस्कृति को नष्ट कर रहे थे। रावण के साथ बाली की सांठ-गांठ थी। बाली इन आतंकवादी राक्षसों को रोकता नहीं था। राक्षसों की घुसपैठ रोकने और दुराचारी रावण से टक्कर लेने के लिए बाली का विनाश अपरिहार्य था। राम ने उससे युद्ध नहीं किया था, उसे दण्डित किया था।
राम के अभिषेक के समय वशिष्ठ ने कहा था- देखो राम, साधारण जनता ने भी ऐसा अनुभव किया है कि यह अभिषेक मानो उनका ही हो रहा है। तुम्हें भेदभाव से ऊपर उठकर सभी का ध्यान रखना होगा। प्रजारंजन तुम्हारा मुख्य कर्तव्य है। श्रेष्ठ राज्य की नींव शासकों के व्यक्तिगत त्याग, मर्यादा और बलिदान पर ही रखी जाती है। राम ने गुरु वसिष्ठ को आश्वस्त करते हुए कहा था- गुरुदेव, प्रजा के अनुरंजन के लिए मुझे अपने सभी सुख, माया-ममता, यहाँ तक कि सर्वाधिक प्रिय जानकी को भी त्यागना पड़े तो मुझे रंचमात्र व्यथा न होगी-
स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि।
आराधनाय लोकस्य मुञ्चते नास्ति मे व्यथा।
राम ने एक ओर प्रजारंजक राजा के कर्तव्य का पालन किया तो दूसरी ओर उन्होंने पति का दायित्व भी निभाया। उन्होंने सीता को पिता के मित्र वाल्मीकि के आश्रम के निकट इसीलिए रखवाया था, ताकि ऋषि सीता और उनकी गर्भस्थ सन्तान को संस्कार दे सकें। लक्ष्मण सीता को वन में छोड़कर जब अयोध्या लौटे थे तो उन्होंने पाया था कि राम इन चारों दिनों तक कक्ष में बन्द रहे थे। वे न सोये थे और न उन्होंने अन्न ग्रहण किया था। उनका मन लगाने के लिए यज्ञ की व्यवस्था की गयी थी। यज्ञ धर्मपत्नी के बिना सम्पन्न नहीं होता। इसलिए उन्होंने किसी अन्य नारी का पाणिग्रहण न कर अपने पार्श्व में सीता की सुवर्ण प्रतिमा स्थापित करायी थी।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम के व्यक्तित्व का प्रभाव जिन परिवारों में है, वे आज भी परस्पर त्याग और स्नेह के सूत्र में बंधे हुए हैं। जहाँ यह प्रभाव नहीं रह गया है वहाँ माँ, पिता, पुत्र, भाई, बहन के सम्बन्धों की पवित्रता भी नष्ट हो रही है। रामकथा पर आधारित नाटक, साहित्य, फिल्म आदि के द्वारा समाज को निरन्तर अनुप्रेरित न किया गया तो हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता परिवार-प्रेम से हम वंचित रह जाएंगे। तब भारत भोगवादी पश्चिम भले ही बन जाए, परन्तु वह त्याग, स्नेह, शील-सम्पन्न नैतिकतावादी देश नहीं रह जाएगा।
भगवान श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम क्यों कहलाए
भगवान श्रीराम के जीवन से हमें धर्माचरण का सन्देश प्राप्त होता है। उन्होंने अयोध्या छोड़ी, माता-पिता का बहुमूल्य प्यार छोड़ा, भाइयों का स्नेह छोड़ा, लेकिन धर्म को नहीं छोड़ा। इसलिए चाहे जीवन में कितनी विषम परिस्थितियाँ क्यों न आ जाएं, धर्म कभी त्याज्य नहीं हो सकता।
धर्म को अपने हृदय में बसाकर हमें जीवन यापन करना चाहिए। भगवान श्रीराम का सन्देश यही है कि हमारे यहाँ तो दुश्मन के लिए भी नफरत नहीं बरती जाती। उसके लिए भी एक सीमा तक क्रोध ही होता है।
सबसे प्रेम करो, सबका सम्मान करो, सबके दुखों में, पीड़ाओं में साथ दो, यही धर्म का सन्देश है। ईश्वर धर्म की परीक्षा कई रूपों में लेता है, जो आम तौर पर मनुष्य की समस्याओं के रूप में प्रदर्शित होती है। समस्याएं कई प्रकार की होती हैं।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की परीक्षा भी तो इतनी कठिन हो गई थी कि उनके गुरु, उनके पिता, यहाँ तक कि उनकी माता ने भी धर्म मर्यादा भंग करने का उनसे अनुरोध किया, परन्तु मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने मर्यादा कभी भंग नहीं की। वह सदैव ही धर्म की रक्षा करते रहे। फलस्वरूप उन पर क्या-क्या विपत्तियाँ आईं, यह तो संसार जानता है। - डा. रमानाथ त्रिपाठी (दिव्ययुग - अप्रैल 2016)
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