ऋग्वेद (5.85.2) में कहा गया है कि परमेश्वर ने वनों में अन्तरिक्ष को, घोड़ों में बल को, गायों में दूध को, जलों में आग को, द्युलोक में सूर्य को, पर्वतों पर सोम को जिस प्रकार रखा है, उसी प्रकार हृदय में कर्म संकल्प की स्थापना की है ।
अतः वह हृदय ही क्या जिसमें कि कर्म-संकल्प का उदय नहीं हो रहा। जिसमें कि किसी प्रकार का आलस्य विद्यमान है।
वास्तव में आलस्य मनुष्य के मन-मस्तिष्क को समय-समय पर अपनी चारदीवारी में घेरकर निष्क्रिय बनाता रहा है। इस आलस्य ने आलसी मनुष्यों के मुख से अपने पक्ष में-
अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गये, सबते दाता राम॥
ऐसी बहुत सी अनर्गल बातें कहलवाई हैं, जबकि वेदों में स्पष्ट कहा गया है-
कर्मणे हस्तौ विसृष्टौ। अर्थात्- कर्म करने के लिये ही हाथ दिये हैं।
इतने पर भी यदि मनुष्य ऐसा कहे कि- ‘जिसने चोंच दी है, वह चुग्गा भी देगा’, तो यह उसकी अज्ञानता ही है।
एक समय था जबकि हमारा देश जगत्-शिरोमणि था। समूचा संसार इसका लोहा मानता था। इसकी सभ्यता और संस्कृति सुदूर देशों में फैली हुई थी। यह तब सोने की चिड़िया कहलाता था। अन्य देशों के लोग ललचाई दृष्टि से इस पर टकटकी लगाये रहते थे। उस समय यह स्वतंत्र तथा आत्म-निर्भर था। लेकिन बाद में इसकी बागडोर अदलती-बदलती एक से दूसरी विदेशी जाति के हाथों में आती-जाती रही और उस समय सारे देशवासी यह सब कुछ मौन होकर देखते रहे।
ऐसा क्यों हुआ? यदि इसकी तह में झांक कर देखें तो देशवासियों को यह दुखद परिणाम आलस्य के ही कारण भोगना पड़ा । क्योंकि जीवन का भयंकर शत्रु आलस्य को ही बतलाया गया है-
आलस्यो हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
अर्थात् जीवन का भयंकरतम शत्रु शरीर में विद्यमान है, जिसे आलस्य या दीर्घसूत्रता अथवा प्रमाद कहते हैं।
उस समय तो देश आलस्य तथा प्रमाद में डूबता चला गया और जब आँखें खुली तो देश ने फिर से एक नई करवट ली। नई जागृति की लहर देश भर में दौड़ती दिखाई देने लगी। स्वतंत्रता मिलते ही देशवासी फूले नहीं समाये। यह आलस्य को त्यागकर कर्मक्षेत्र में उतरने का ही सुपरिणाम था।
किन्तु आज भारतीय स्वतंत्र होते हुए भी आलस्यवश निष्क्रिय हो रहे हैं। उन्हें केवल अपने अधिकारों का ध्यान है । स्वार्थवश उन्होंने स्वतंत्रता का अर्थ उच्छृंखलता लगा लिया है, जिसके कारण देश में कई बार तोड़फोड़, आगज़नी और हत्या जैसी वारदातें भी हुईं। देशी और विदेशी शक्तियों ने फिर से इस देश की शांति को भंग करने के लिये विघटनकारी तत्वों की गतिविधियों को तेज कर दिया है। इससे ऐसा लगने लगा है कि देश का भविष्य अंधकार में है। आज यह बात मन को अंदर ही अंदर सालने लगी है। आज देश आंतरिक और बाह्य संकटों से घिरा है। इसका समाधान तभी किया लगाया जा सकता है जबकि आलस्य को त्याग दिया जाये।
आज भी देश में बहुत से ऐसे व्यक्ति मिल जाएंगे, जो भाग्यवाद पर भरोसा करके हाथ पर हाथ धरे खाली बैठे हुए हैं। यदि वे समय की मांग को देखते हुए परिश्रमवाद में विश्वास करके ‘परिश्रम-देवता’ की उपासना आरम्भ कर दें तो आज देश का रूप ही कुछ और हो जाये।
मनुष्य की कार्य-कुशलता इसी से आंकी जाती है कि वह सीमित साधनों के होते हुए भी, आलस्य त्यागकर अपने परिश्रम से अभूतपूर्व सफलता को प्राप्त करके दिखा दे। उद्योग का नाम पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ के भी चार भेद हैं। अप्राप्त की इच्छा, प्राप्त की यथावत् रक्षा, रक्षित की वृद्धि, बढ़ाये हुए पदार्थों का धर्म से खर्च करना। स्विटजरलैंड, जापान, रूस आदि देशों ने अपने सीमित साधनों के होेते हुए और इसी प्रकार भारत के हरियाणा तथा पंजाब सरीखे प्रांतों ने भी अपने सीमित साधनों के बल पर आलस्य त्यागकर आशातीत उन्नति की है।
आलसी और अनुद्यमी होकर सौ साल जीने की अपेक्षा दृढ़ तथा उद्यमशील का एक दिन जीना भी श्रेष्ठ है। सदा वही देश आदर और सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है, जो आलस्य छोड़कर कार्यशील हो। सदा उसी मनुष्य का सम्मान होता है, जो कर्मठ हो। हमारे देश में प्रातः सोकर उठते समय करतल-दर्शन का भी यही उद्देश्य है कि ये हाथ निरन्तर कर्मशील रहकर न्यायपूर्ण ढंग से जीविकोपार्जन में लगें।
महर्षि व्यास ने भी कहा है कि ‘वही तो पुरुष है जिसके कि कर्म का विनाश नहीं होता ?‘ अतः आलस्य त्यागिए, कर्मशील बनिए, स्वयं को उन्नति-पथ पर ले चलिए।
महात्मा विदुर जी लिखते हैं कि-
आलस्यं मदमोहौ च चापल्यं गोष्ठिरेव च।
स्तब्धता चाभिमानित्वं तथा त्यागित्वमेव च।
एते वै सप्तदोषाः स्युः सदा विद्यार्थिनां मताः।
अर्थात् आलस्य, अभियान, नशा करना, मूढ़ता, चपलता, व्यर्थ इधर-उधर की अण्ड-बण्ड बातें करना, जड़ता, लोभ ये सात दोष कहे जाते हैं।
यहाँ भी आलस्य नामक दोष विद्यार्थियों के लिए विशेष हानिकारक है। - रमाकान्त दीक्षित
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