गीली मेंहदी उतरी होगी सिर को पकड़ के रोने में,
ताजा काजल उतरा होगा चुपके-चुपके रोने में।
जब बेटे की अर्थी होगी घर के सूने आंगन में,
शायद दूध उतर आयेगा बूढ़ी माँ के दामन में॥
सम्पूर्ण भारतवर्ष में हाहाकार मचा हुआ था। अंग्रेज भारतीयों को खुले आम सर कलम कर रहे थे। चारों ओर खून-ही-खून नजर आ रहा था। पर ऐसे विकराल काल में हमारे देशभक्तों ने जो कर दिखाया उसे देख अंग्रेजों की बोलती बन्द हो गयी।
जब देश में जलियाँवाला हत्याकाण्ड हुआ तो उधम सिंह ने अपने आक्रोश से लन्दन में जाकर बदला लिया। साईमन के विरोध में लाला लाजपत राय ने अपने को आहूत करते हुए कहा था कि- ‘‘मेरे खून की एक-एक बून्द इस देश के लिए एक-एक कील काम करेगी।’’ एक वीर योद्धा ऐसा भी था जो देश से कोसों दूर अपनी मातृभूमि की चिन्ता में निमग्न था और होता भी क्यों न? क्योंकि जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपिया गरीयसी। अर्थात् जननी और जन्मभूमि दोनों ही स्वर्ग से भी महान होती हैं। इसीलिए वेद भी आदेश देता है कि- वयं तुभ्यं बलिहृतः स्यामः। अर्थात् हे मातृभूमि! हम तेरी रक्षा के लिए सदैव बलिवेदी पर समर्पित होने वाले हों। शायद इन्हीं भावों से विभोर होकर सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज का गठन किया और ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का नारा लगाकर अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया।
वह दिन भला कोई कैसे भुला सकेगा? जिस दिन राजगुरु, सुखदेव व भगतसिंह को ब्रिटिश सरकार ने समय से पहले ही फांसी लगा दी।
अत्याचारियों के कोड़ों की असह्य पीडा को सहन करते हुए भी चन्द्रशेखर आजाद ने इंकलाब जिन्दाबाद का नारा लगाया। अरे! कौन भूला सकता है ऋषिवर देव दयानन्द को जिनकी प्रेरणा से स्वामी श्रद्धानन्द ने चान्दनी चौक पर सीने को तानते हुए अंग्रेजों को कड़े शब्दों में कहा कि - दम है तो चलाओ गोली।
देशभक्तों को देशप्रेम से देदीप्यमान करने का काम देशभक्त साहित्यकारों तथा लेखकों ने किया। बंकिमचन्द्र चटर्जी ने ‘वन्दे मातरम्’ लिखकर तो आग में घी का काम किया। जो गीत देश पर आहुत होने वाले हर देशभक्त का ध्येय वाक्य बन गया। इस गीत को सभी देशभक्तों ने अपनाया । उन शहीदों के दिल के अरमान बस यही थे, जिनको कवि अपने शब्दों में गुन गुनाता है-
मुझे तोड़ लेना बन माली, उस पथ पर देना फेंक।
मातृभमि पर शशि चढ़ाने, जिस पथ पर जाऍं वीर अनेक॥
मातृभूमि की रक्षार्थ शहीद होने वाले शहीदों की दासता कैसे भुलाई जा सकती है? हुतात्माओं ने स्वतन्त्रता के लिए अहर्निश प्रयत्न किया। भूख-प्यास-सर्दी-गर्मी जैसी कठिन से कठिन यातनाओं को सहन किया। धन्य हैं वो वीरवर जिन्होंने हिन्दुस्तान का मस्तक कभी भी नीचे न झुकने दिया। स्वतन्त्रता के खातिर हँसते-हँसते फांसी के फन्दे को चूम लेते थे, आंखों को बन्द कर कोड़ों की मार को सह लेते थे तथा अपना सब कुछ भुलाकर बन्दूकों व तोपों के सामने आ जाते थे। माँ की लोरी, पिता का स्नेह, बहन की राखी, पत्नी के आँसू और बच्चों की किलकारियाँ उनको अपने पथ से विचलित नहीं कर पाती थी। उनका तो बस एक ही ध्येय होता था- कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्। देशभक्त जवान अंग्रेजों को ललकारते हुए कहा करते थे-
शहीदों के खून का असर देख लेना,
मिटा देगा जालिम का घर लेना।
झुका देंगे गर्दन को खंजर के आगे,
खुशी से कटा देंगे सर देख लेना॥
वीर हुतात्माओं के अमूल्य रक्त से सिंचित होकर आजादी हमें प्राप्त हुई है। जिस स्वतन्त्र वातावरण में हम श्वास ले रहे हैं वह हमारे वीर हुतात्माओं की देन है। स्वतन्त्रता रूपी जिस वृक्ष के फलों का हम आस्वादन कर रहे हैं उसे उन वीर हुतात्माओं ने अपने लहु से सींचा है । आजादी के बाद स्वतन्त्रता का जश्न मनाते हुए नेताओं ने वादा किया था कि-
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वर्ष मेले।
वतन पर मिटने वालों का यही निशां होगा॥
परन्तु बहुत दुःख है कि शायद वर्तमान में हमारे नेता इस आजादी के मूल्य को भूल बैठे हैं। उनके विचार में आजादी शायद खिलौना मात्र है, जिसे जहाँ चाहा फेंक दिया, जब चाहा अपने पास रख लिया। किन्तु ऐसा नहीं है। हमारे नेताओं ने देश को जिस स्थिति पर लाकर खडा कर दिया है, क्या यही है वीर हुतात्माओं के स्वप्नों का भारत? क्या यही है मेरा भारत महान्? क्या यही दिन देखने के लिए वीरों ने अपनी बलि दी? आखिर क्या हो रहा है? इस परिदृश्य को देखते हुए कि कवि ने ठीक ही कहा है -
शहीदों की चिताओं पर न मेले हैं न झमेले हैं।
हमारे नेताओं की कोठियों पर लगे नित्य नये मेले हैं॥
कैसे हैं इस देश के नेता, जो गरीब जनता की खून-पसीने की कमाई को निज स्वार्थ में अदा कर देते हैं तथा घोटाले कर अपने घर को भर लेते हैं!
क्यों हम इतने दीन-हीन हो गए है कि किसी शत्रु के छद्म युद्ध का प्रत्युत्तर नहीं दे पा रहे है? क्यों 26 नवम्बर के मुम्बई हमले को हम इतनी आसानी से भूल जाते हैं? क्यों हम व्यर्थ में सहिष्णुता-असहिष्णुता के विवाद में फस रहें हैं? क्यों हमारी न्यायिक प्रक्रिया में इतनी शिथिलता है कि आतंकवादी लोग आज भी मौज मस्ती से घूम रहे हैं?
यह कैसी राजनीति है, जिससे चक्कर में पड़कर हम अपनी भाषा, संस्कृति व देश की उन्नति को भूल बैठे हैं। क्यों हम इतने कठोर हृदयी हो गए कि गरीब जनता का हाल देख हमारा हृदय नहीं पिघलता है? क्यों हम पाप करने से नहीं रुक रहे? क्यों हम अपने देश की सीमाओं को सुरक्षित नहीं कर पा रहे हैं?
हमारे गणतन्त्र को खतरा है उन आतंकवादी गतिविधियों से, देशद्रोहियों से, सम्प्रदायवादियों से, जातीय संकीर्णता से, भ्रष्टाचार से एवं शान्त रहने वाली इस जनता से। हम भारतवासियों का यह कर्तव्य है कि देश की रक्षा एवं संविधान के लिए हम अपने कर्त्तव्य को समझें। हमें प्रत्येक परिस्थिति में अपने देश की रक्षा करनी है। यह सत्य है कि विभिन्नता में एकता भारतीय संस्कृति की विशेषता है -
हे नवयुवाओ! देशभर की दृष्टि तुम पर ही लगी,
है मनुज जीवन की ज्योति तुम्ही से जगमगी।
दोगे न तुम तो कौन देगा योग देशोद्धार में?
देखो कहाँ क्या हो रहा है आज कल संसार में॥
आओ! हम सब मिलकर गणतन्त्र के यथार्थ स्वरूप को जानकर संविधान के ध्वजवाहक बनें और तभी जाकर हम सर उठाकर स्वयं को गणतन्त्र घोषित कर सकेंगे और कह सकेंगे कि - जय जनता जनार्दन।
और अन्त में-
ये किसका फसाना है ये किसकी कहानी है,
सुनकर जिसे दुनिया की हर आंख में पानी है।
दे मुझको मिटा जालिम, मत मेरी आजादी को मिटा,
ये आजादी उन अमर हुतात्माओं की अन्तिम निशानी है॥ - शिवदेव आर्य (दिव्ययुग- जनवरी 2016)
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