विशेष :

पाप-कर्म छोड़ने पर ही कल्याण

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ओ3म् इन्द्रश्‍च मृळयाति नो न नः पश्‍चादघं नशत्।
भद्रं भवाति नः पुरः॥ ऋग्वेद 2.41.11॥

ऋषिः गृत्समदः॥ देवता इन्द्र ॥ छन्दः गायत्री॥

विनय- भाइयो ! इसमें सन्देह नहीं है कि इन्द्र भगवान तो हमें सदा सुख ही दे रहे हैं, निरन्तर हमारा कल्याण ही कर रहे हैं, फिर भी जो असुख हमारे सामने आता है, हमें दुःख देखना पड़ता है, उसका कारण यह है कि हमने अपने पीछे पाप को लगा रखा है और पाप का परिणाम दुःख होना अटल है, अनिवार्य है। यदि हमारे पीछे पाप न लगा हो तो हमारे सामने भद्र ही भद्र आता जाए। जब हम कोई पाप करते हैं तो समझते हैं कि वह वहीं खत्म हो गया। हम समझते हैं कि दो घण्टे पहले किया हुआ हमारा पाप उसके कर्म के साथ ही समाप्त हो चुका, अब उसका हमसे कुछ सम्बन्ध नहीं। इस तरह हम पाप करके आगे चलते जाते हैं और चाहते हैं तथा आशा करते हैं कि आगे-आगे हमारे लिए भद्र ही भद्र आता जाए, पर हमें मालूम रहना चाहिए कि हमारा किया हुआ पाप चाहे हमारी आँखों के सामने नहीं आ खड़ा होता हो, पर वह नष्ट भी नहीं होता है। वह तो हमारे पीछे लग जाता है और तब तक हमारा पीछा नहीं छोड़ता जब तक वह हमारे आगे अभद्र, अकल्याण व दुःख के रूप में आकर हमें फल नहीं भुगा लेता। अतः याद रखिए कि हमें न दिखाई देता हुआ हमारे पीछे रहता हुआ ही हमारा पाप एक दिन हमारे आगे अभद्र व क्लेश के रूप में आता है, जैसे कि हमारा हरेक पुण्य भी पीछे रहता हुआ दिखाई न देता हुआ एक दिन हमारे आगे भद्र के रूप में आता है। यह हमारी कितनी मूर्खता भरी इच्छा है कि हम चाहते हैं हमारा सदा भला ही होवे, हमारे सामने सदा सुख, स्वास्थ्य, समृद्धि आदि ही आते जाएँ, पर साथ ही हम पाप करना भी नहीं छोड़ना चाहते। यह कैसे हो सकता है? हमारे पीछे तो हमारा नाश करता हुआ हमारा पाप चल रहा होता है और हम मूर्खतापूर्ण आशा में यह प्रतीक्षा करते होते हैं कि हमारे सामने सुख आता होगा। यह असम्भव है। अतः आओ, आज से हम कम से कम आगे के लिए पाप करना तो सर्वथा त्याग दें। यदि हम विशेष पुण्य नहीं कर सकते तो कम से कम इतना तो संकल्प कर लें कि हम अब से एक भी पाप अपने से न होने देंगे। इतना करने से भी इन्द्र भगवान की दया से हमारे सुदिन शीघ्र ही आ जाएंगे, पाप का पीछा छूट जाने से भद्र के लिए मार्ग साफ हो जाएगा। पर यदि हम इतना भी न कर सकें तो तब तो इन्द्रदेव की सुख व कल्याण की वर्षा में रहते हुए भी हमारे भाग्य में तो दुःख ही दुःख रहेगा।

शब्दार्थ- इन्द्रः=परमेश्‍वर च=निश्‍चय से नः=हमें मृळयाति=सुख ही देते हैं। नः=हमारे पश्‍चात्=पीछे अघं पाप न नशत्=न लगे तो नः पुरः=हमारे सामने भद्रम्=भद्र कल्याण ही भवाति=होवे, होता रहे। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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