विशेष :

धर्म पुकार रहा है

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ओ3म् उप ह्वये सुदुघां धेनुमेतां सुहस्तो गोधुक उत दोहदेनाम्।
श्रेष्ठं सवं सविता साविषन्नो अभीद्धो धर्मस्तदु षु प्रवोचम्॥ (ऋग्वेद 1.164.26, अथर्व. 7.73.7)

ऋषिः दीर्घतमा॥ देवता विश्‍वेदेवाः॥ छन्दः निचृत्त्रिष्टुप्।

विनय- ग्रीष्मकाल प्रचण्डता से तप रहा है। वर्षा के बिना सब वृक्ष-वनस्पतियाँ भी सूखी जा रही हैं, इसलिए मैं इस मेघरूपी धेनु (माध्यमिक वाणी) को पुकार रहा हूँ। यह आकाश में फिरती हुई खूब उदक दे सकने वाली मेघ-धेनु (माध्यमिक वाणी) आये और अन्तरिक्ष निवासी मध्यमदेव (इन्द्र) एक कुशल दोहने वाले की तरह इसे दुह लेवे। ओह! यह सब परमात्मा की इच्छा के बिना कैसे हो सकता है? भगवान् की प्रेरणा के बिना तो संसार में एक भी हरकत नहीं हो सकती। अतः मैं उनकी करुणा का भिक्षुक हूँ। उनकी करुणामय प्रेरणा से यह धेनु हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ रस को देवे, वर्षारूपी दूध पिलाकर इस झुलसी हुई भूमि को तृप्त कर दे। अरे! यह पथिवी रूपी धर्म (यज्ञ का चूल्हा) तप रहा है, जलाए जा रहा है। इसीलिए मैं तुम्हें पुकार रहा हूँ। परितप्त व्याकुल संसार वर्षा की मांग कर रहा है।

मैं बहुत तप कर चुका हूँ, बड़े-बड़े क्लेश उठा चुका हूँ, अब ज्ञान-पिपास ने मुझे बिल्कुल व्याकुल कर दिया है। इसलिए हे खूब ज्ञानदुग्धामृत दे सकने वाली सरस्वती देवीरूपी धेनु! तुम आओ, हृदयान्तरिक्ष में रहने वाला देव जो कुशल दोहने वाला मनोदेव है, वह तुम्हें दुह देवे। उस सर्वान्तर्यामी प्रभु की ऐसी दया हो कि मेरे लिए यह सरस्वती धेनु अब तो उस ज्ञान-दुग्ध को दुह देवे जो कि संसार में सर्वोत्तम रस है। मुझे तप करते हुए बहुत काल हो गया है। गर्मी के बाद वर्षा आया ही करती है। तो अब तो मेरे लिए ज्ञानामृत पान करने का समय आ गया होगा। मैं इसीलिए पुकार रहा हूँ। क्योंकि मुझमें ज्ञान-पिपासा की अग्नि प्रचण्डता से धधक रही है। इस समय ज्ञानामृत न मिला तो मैं जल जाऊँगा, ज्ञानामृत मिल गया तो मैं इस सबको इस समय हजम कर सकता हूँ। मेरी ज्ञान-पिपासा का धर्म तुम्हें पुकार रहा है।

शब्दार्थ- एतां सुदुघां धेनुम्=इस अच्छी दुही जाने वाली धेनु को मैं उपह्वये=बुलाता हूँ उत एनां सुहस्तः गोधुक् दोहत्=और अच्छा कुशल दोहने वाला इस धेनु को दुहे। सविता नः श्रेष्ठं सवं साविषत्=प्रेरक परमात्मा इस श्रेष्ठ रस को हमारे लिए प्रेरित करे। धर्म अभीद्धः तत् उ सु प्रवोचम्=धर्म खूब तप रहा है। इसीलिए यह उचित विनती कर रहा हूँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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