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जब श्रीराम ने आतंकवादियों का सफाया किया था

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When Shriram Had Eliminated the Terroristsअयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र श्रीराम ने अपने वनवास के प्रारम्भिक दिनों में जब दण्डकारण्य में प्रवेश किया था, तब उन्होंने देखा कि वह सारा प्रदेश राक्षसों से आतंकित था। दण्डकारण्य का दूसरा नाम जनस्थान भी था, क्योंकि वह बिल्कुल जंगल नहीं था। उसके आसपास लोग बसते थे।

अतिवादी राक्षस- पुराने समय में लोग जिनको राक्षस कहा करते थे, आधुनिक युग में उनको आतंकवादी, भयोत्पादक या उग्रवादी कहते हैं। उन राक्षसों की विशेषता यही थी कि ये लोग सच्चाई, दया, अनुकम्पा इत्यादि मानवीय मूल्यों को नहीं मानते थे तथा किसी भी धर्म-मर्यादा का आदर नहीं करते थे। ये अपने समुदाय विशेष से भिन्न जनसमुदाय को हमेशा संशय और घृणा की दृष्टि से देखते थे, उनको पीड़ा पहुँचाते थे। उन पर अत्याचार करते थे। इनके विचार, इनकी बातें और इनके हर कर्म दूषित होते थे। ये न्याय शब्द के अर्थ को बिल्कुल नहीं समझते थे। ये जहाँ कहीं भी जाते थे, वहाँ गन्दगी और अशांति फैलाते थे।
त्यक्त स्वधर्माचरणाः निर्घृणाः परपीडकाः।
चण्डाश्‍च हिंसकाः नित्यं म्लेच्छास्ते ह्यविवेकिनः। (शुक्रनीति 1.44)

राम की व्यवहार नीति- बुद्धिमान लोग ऐसे दुष्ट तथा नीच लोगों के साथ बातचीत करना और उनको समझाने का प्रयास करना व्यर्थ समझते हैं। राम ने जब जनस्थान के ऋषि-मुनियों की, तपस्वी, सरल, मुग्ध और शांतिप्रिय लोगों की दयनीय स्थिति को देखा और समझा कि ऐसी स्थिति को उत्पन्न करने वाले राक्षसों के साथ बातचीत करके और उनको समझाते हुए समय नष्ट करने के बदले उनका सफाया करना ही बेहतर है, तब उन्होंने ऐसी ही कार्यवाही शुरु की। जब राम ने देखा कि जनस्थान के निर्दोष लोगों की रक्षा करने वाला या उनका रोदन सुनने वाला कोई भी नहीं था, तब उन्होंने अपने क्षात्र धर्म को याद किया।

आततायी को मार डालना ही धर्म है- लोगों के जान-माल को क्षति पहुंचने से रोकने वाला ही क्षत्रिय होता है। क्षतात् त्रायत इति क्षत्रियः। राम ने अयोध्या के सिंहासन पर अपने परम्परागत अधिकार को अवश्य त्याग दिया था, लेकिन उन्होंने अपने क्षत्रिय धर्म को नहीं त्यागा था। अतः जहाँ जहाँ उनके कानो में आर्तनाद सुनाई दिया, वहाँ वहाँ झट से पहुँचकर उन्होंने आतंकवादियों को देखते ही मार गिराना शुरू किया। धर्मशास्त्र कहता है कि आततायी और आतंकवादियों को देखते ही मार डालना चाहिए। इसमें विचार करने या सोचने बैठने का कोई औचित्य नहीं होता। आततायियों को प्रत्यक्ष या छिपकर मारने से मारने वाले को कोई दोष नहीं लगता-
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।
नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कस्यचित्॥

अविचारपूर्ण दया- लेकिन इस पर लोगों के अलग-अलग विचार हो सकते हैं। एक तो निर्लिप्ततावाद, दूसरा मानवतावाद, तीसरा न्यायवाद। निर्लिप्ततावादी जब तक उन पर कोई संकट नहीं आता, तब तक किसी भी लफड़े में पड़ना नहीं चाहते। मानवतावादी अहिंसा और क्षमा का एकपक्षीय प्रचार करते हैं। न्यायवादी कहते हैं कि जब तक किसी का अपराध सिद्ध नहीं होता, तब तक उसको दण्ड नहीं देना चाहिए। राम के समय में भी ऐसे लोग थे। उनमें राम की अपनी पत्नी स्वयं सीता भी शामिल थी। यद्यपि वह भी एक क्षत्रिय राजा की बेटी थी, तथापि वह दार्शनिक और ब्रह्मवादी (वेदान्ती) जनक राजा की बेटी होने के कारण स्वभाव से कुछ आवश्यकता से अधिक क्षमाशील, सहनशील और उदार थी। अतः उसको राम का यह कार्य, अकार्य सा लगा। अतः उसने राम की निन्दा की और हिंसाचार को बन्द करने के लिए आग्रह किया। इसी सन्दर्भ में सीता ने राम से कहा- “हे राम, यह तुम क्या कर रहे हो? इन राक्षसों से हमारा कोई झगड़ा नहीं। इन राक्षसों ने हमारे ऊपर कोई आक्रमण नहीं किया। फिर भी तुम उनको बिना सोचे-विचारे मारते जाते हो! यह गलत है, पाप है। ऐसा मत करो।’’

सीता कहती हैं कि- “मैं तुमको कोई उपदेश देना नहीं चाहती, मैं शायद उसके योग्य भी नहीं हूँ । फिर भी स्नेहवशात् कटु होने पर भी कुछ हितकर वचन कहती हूँ। अपराध सिद्ध हुए बिना किसी से द्वेष करना, उसको जान से मार डालना, न्याय नहीं है। हो सकता है कि सदा से शस्त्र धारण करते रहने के कारण तुम उन शस्त्रों का प्रयोग करने के लिए सदा उत्सुक रहते हो। यह ठीक नहीं। यदि तुमको क्षात्रधर्म का पालन करना अभीष्ट है, तो भी समय आने पर तुम यथेष्ठ ऐसा कर सकते हो। अभी वह समय नहीं आया है। अब तुम राजा नहीं हो। जब वनवास की अवधि समाप्त होने पर तुम अयोध्या लौटोगे, तब तुम यथेष्ट अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करना। किन्तु इस वक्त तुम निर्लिप्त रहो, तटस्थ रहो। इन राक्षसों के लफड़ों में मत पड़ो। ये चारों ओर फैले हुए हैं। उनको छेड़ने से, उनके साथ शत्रुता मोल लेने से, हमें यहां जीना मुश्किल हो सकता है।’’ (वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग-8)

अपनों से समर्थन की इच्छा- सीता की इन बातों को सुनकर राम को अवश्य बुरा लगा होगा। क्योंकि जब कोई व्यक्ति कुछ असाधारण कार्य करता है, तब वह कम-से-कम अपनों से उसका नैतिक समर्थन चाहता है। राम को ऐसा नैतिक समर्थन यहाँ नहीं मिल रहा है। इस कारण वह खिन्न होकर सीता से कहते हैं- “हे देवि ! तुम्हारे स्नेह और आदर भरे हितवचन निस्सन्देह तुम्हारे अपने पिता श्रीजनक महाराज से प्राप्त संस्कारों के अनुकूल हैं। किन्तु जरा मेरी भी बात सुनो। तुमने क्षत्रियों के धनुष-बाण धारण करने के बारे में जो कुछ आक्षेपकारक बातें कही हैं, उनका उत्तर भी सुनो। क्षत्रियों को बचपन से ही शस्त्रधारण और उन शस्त्रों का प्रयोग करने का अभ्यास इसलिए लगातार कराया जाता है कि जहाँ कहीं भी ये लोग रहते हैं, नगरों में हों या जंगलों में, वहाँ किसी का भी आर्तनाद, रोने की आवाज सुनने को न मिले। और तुम जानती हो कि जब से हम लोग इस जनस्थान में आये हैं, तब से चारों ओर से किसी-न-किसी का आर्तनाद सुन रहे हैं। ऋषि-मुनि भी राक्षसों के अत्याचार के शिकार होकर मेरी शरण में आये हैं और मैंने उनको अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी उनकी रक्षा करने का वचन दिया है। इस तरह मैं वचनबद्ध हूँ। अतः अब मैं स्वार्थ के वशीभूत होकर अपने प्राणों के भय से, आतंकवादियों के क्रूर कर्मों को देखकर भी चुप रहना पसन्द नहीं करता। यह वचन भंग होगा। वचन भंग पाप है। हे देवि! यदि तुम यह चाहती हो कि हम लोग इन राक्षसों द्वारा हम पर आक्रमण होने की प्रतीक्षा करें, तो यहाँ रक्षा करने योग्य कोई भी नर-नारी जीवित नहीं रहेगा। फिर हमारे ये शस्त्रास्त्र किस काम के होंगे? हम क्षत्रिय कहलाने योग्य भी नहीं रह जायेंगे।’’ (वा.रा.अरण्यकाण्ड, सर्ग-9)

शक्तिहीन राजा को हटाओ और मारो- श्रीराम बहुत बड़े धर्मज्ञ थे। उनको राजधर्म का पूरा ज्ञान था। प्राचीन काल के धर्मशास्त्रकार ऋषियों ने कहा है कि जो राजा प्रजाजनों को उनकी रक्षा करने का वचन देकर समय आने पर उस वचन का पालन नहीं करता, वह राजा बनकर रहने योग्य नहीं होता। ऐसे अयोग्य राजा को प्रजाजन सब एक होकर पहले अपदस्थ करें और फिर उसको हाथ-पांव बांधकर इस तरह खुलेआम मार डालें, जैसे प्रायः लोग पागल कुत्तों को रस्सी से बांधकर मार डालते हैं-
अहं वो रक्षितेत्युक्त्वा यो न रक्षति भूमिपः।
स संहृत्य निहन्तव्यः श्‍वेव सोन्माद आतुरः॥

यद्यपि उस समय राम राजा नहीं थे, तथापि वह एक श्रेष्ठ क्षत्रिय वीर थे। उनको ऋषियों की वर्णव्यवस्था पर पूरा विश्‍वास था और इसी विश्‍वास के आधार पर ऋषि-मुनियों ने राम से अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना की थी तथा राम ने भी उनको उनकी रक्षा करने का वचन दिया था। ऐसी परिस्थिति में वह अपनी भार्या की भावुकता की बातों में आकर अपने वचन को कैसे भूल सकते थे?

आज इतने लम्बे समय के बाद वर्तमान परिस्थिति ने हमें राम की बातों को फिर याद दिलाया है। सारा विश्‍व आज एक जनस्थान बन गया है। जब जगह आतंकवादी फैल गये हैं। विगत बासठ वर्षों से जम्मू कश्मीर में हजारों लोग आतंकवादियों के शिकार हो चुके हैं। लाखों लोग शरणार्थी बन गये हैं। देश को हर वर्ष करोड़ों रुपयों की हानि हो रही है। इस प्रदेश की गली-गली से आर्तनाद सुनाई दे रहा है। लेकिन वहाँ राम के सदृश कोई धर्मज्ञ वीर पुरुष नहीं है। राजनेता लोगों को आश्‍वासन देते हैं, उनकी रक्षा का वचन देते हैं और सरकार बनाते हैं। लेकिन कुछ समय बाद लोगों से विश्‍वासघात करते हैं, अपने वचनों को भूल जाते हैं।

जिन लोगों ने राष्ट्र की रक्षा की शपथ ली है, वे निहत्थी प्रजा को आतंकवादियों के हाथों मरते देख रहे हैं, विलाप सुन रहे हैं। पर क्षात्र धर्म का पालन नहीं कर रहे हैं, उनके साथ क्या किया जाना चाहिए ? - ज्येष्ठ वर्मन

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