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क्या है आर्य समाज

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What is the Arya Samaj

आर्यसमाज के सम्बन्ध में अनेक व्यक्तियों में भ्रम फैला हुआ है। कुछ व्यक्ति इसे सनातन धर्म से अलग कोई धर्म मानते हैं, कुछ व्यक्ति आर्य को एक जाति मानते हैं और आर्यसमाज को आर्य जाति का ही एक संगठन समझते हैं। कुछ लोग यह मानते हैं कि आर्य तो बाहर से आए थे और ऐसा भी मानते हैं कि आर्यसमाजी ईश्‍वर को नहीं मानते।

परन्तु ये सभी मान्यताएं गलत हैं, निराधार हैं तथा यह अज्ञात षड्यन्त्र और कूट नीति के कारण फैली हैं। यह आर्य शब्द तो हमारी सनातन संस्कृति में सम्मानजनक व श्रेष्ठता का प्रतीक माना गया है। आज इसका गलत अर्थ समझा जा रहा है, इसलिए भ्रम दूर करने हेतु आर्य समाज का संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जा रहा है।

र्य शब्द जाति का सूचक नहीं है। यह गुणवाचक अर्थात गुणों का सूचक है। आर्य का अर्थ श्रेष्ठ होता है। जैसे दयालु, दानी, विद्वान शब्दों से किसी व्यक्ति के गुणों का बोध होता है। दयालु, दानी, विद्वान कोई भी व्यक्ति हो सकता है, चाहे वह किसी भी देश में, किसी भी परिवार में, किसी भी वर्ण में पैदा हुआ हो। यदि उस व्यक्ति में उपरोक्त ये गुण पाये जाते हैं, तो उसे इन्हीं दयालु, दानी, ज्ञानी नामों से पुकारा जा सकता है।

ठीक इसी प्रकार गुण-कर्म-स्वभाव से श्रेष्ठ कोई भी व्यक्ति वह किसी भी देश का हो, यदि उसके गुण-कर्म श्रेष्ठ हैं तो वह श्रेष्ठ माना जावेगा और श्रेष्ठ व्यक्ति को ही आर्य कहते हैं। इसलिए यह समझना चाहिए कि आर्य किसी व्यक्ति को उसके सद्गुणों के कारण प्राप्त सम्मान तथा उसे पुकारा जाने वाला सम्बोधन है। इसका सम्बन्ध किसी जाति, पन्थ, मजहब या देश से नहीं है और न ही आर्यसमाज ने इस आर्य शब्द की रचना की है। आर्य जन्म से पैदा नहीं होता, आर्य बनना पड़ता है।

आप पढकर देखें वेद, उपनिषद, दर्शन ग्रन्थ, रामायण, गीता, महाभारत और मनुस्मृति, चाणक्य नीति, विदुर नीति आदि ग्रन्थ जो कि प्रमुख ग्रन्थ माने जाते हैं। इन सभी में श्रेष्ठ चरित्र और सत्य व्यवहार वालों के लिए आर्य शब्द का ही उपयोग किया गया है। हिन्दू, भारतीय या इण्डियन का कहीं उपयोग नहीं किया गया।

भगवान राम, भगवान कृष्ण, अर्जुन, धर्मराज युधिष्ठिर आदि ऐसे अनेक महापुरुषों को आर्य कहकर ही पुकारा गया है। इसलिए आर्य शब्द कोई नया नहीं। यह तो हमारी प्राचीन व सनातन संस्कृति का सम्मान सूचक व श्रेष्ठ गुणों का संकेत करने वाला शब्द है। दुर्भाग्य से हमारा इससे परिचय नहीं रहा।

इसका प्रमाण है आज भी जब हमारे किसी शुभ कार्य में पण्डितजी संकल्प कराते हैं तो ‘जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गते‘ शब्दों का उच्चारण करते हैं। आर्यावर्त इस देश के नाम का सूचक है। इस देश को अंग्रेजों ने इण्डिया कहा, मुगलों ने हिन्दुस्तान कहा, प्रतापी राजा भरत के कारण भारत कहा गया। ये सभी नाम लगभग 5000 वर्षों की अवधि में ही प्रचलित हुए। विचार करें फिर इसके पूर्व इसका नाम क्या था? इसके पूर्व इस देश का नाम आर्यावर्त था। यह अनेक ग्रन्थों और प्राचीन समय से किये जा रहे संकल्प के उच्चारण से सिद्ध होता है।

आर्य जाति है, आर्य बाहर से आए थे, आर्य विदेशी हैं, यह वैचारिक जहर तो अंग्रेजों की देन है। वास्तव में 1857 में मंगल पाण्डे की क्रान्ति विफल हो गई, उस समय ब्रिटिश साम्राज्य ने भारतीयों में उठी स्वाधीनता की भावना को अपनी कूटनीति से बदलने के लिए अनेक प्रलोभन देकर स्वतन्त्रता की विचारधारा को शान्त करने का प्रयास किया। समाज पर इसका प्रभाव होने भी लगा था, ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति देशवासी उदार होने लगे, स्वतन्त्रता की विचारधारा शनैः-शनैः शिथिल होती जा रही थी।

किन्तु महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अंग्रेजों की इस चाल को समझकर इसका विरोध किया। स्वदेश के प्रति नवचेतना जागरण का शंखनाद किया। विदेशी वस्तुओं का त्याग किया, विदेशी कपड़ों की होली जलाई, स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने का जोरदार आन्दोलन चलाया। यह देश आर्यों (हिन्दुओं) का है तथा यह देश सनातन संस्कृति का अनुयायी देश है, विदेशी आक्रान्ताओं को यहाँ से चले जाना चाहिए, यह प्राचीन आर्यावर्त है, इन विचारों का बहुत प्रचार किया। इस प्रकार की भावना का प्रभाव जनमानस में बड़ी तेजी से होने लगा। इस पर अंग्रेजों ने भारतीयों में ‘आर्य‘ शब्द के विरुद्ध षडयन्त्र रचा। फूट डालो और राज करो के सिद्धान्त के अनुसार भारतीयों में फूट डालने के लिए स्वामी दयानन्द के विरुद्ध भी मिथ्या विचार प्रचारित किया और बताया कि आर्य यहाँ के मूल निवासी नहीं हैं। वे बाहर से आए थे। यह योजना लन्दन में 9 अप्रैल 1866 में बनाई गई, जिसमें प्रमुख थे राइट ऑनरेबल बाइकाउण्ट स्ट्रांग फिल्ड। वैसे भी सनातन संस्कृति को नष्ट करने की अंग्रेजों की चाल पहले से ही थी, उसमें उन्होंने यह और जोड़ दिया, इसलिए आर्य शब्द के सम्बन्ध में भ्रान्ति अंग्रेजों की कूटनीति के कारण फैली है। भगवान राम और श्रीकृष्ण को आर्य कहा गया है। तो क्या वे भारत के बाहर से आए थे।

वास्तव में आर्यसमाज की स्थापना महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपनी कोई नई विचारधारा या मान्यता के लिए नहीं की। स्थापना उनके अपने किन्हीं सिद्धान्तों को लेकर अथवा नए पन्थ या सम्प्रदाय को बनाने के लिए भी नहीं की गई। महर्षि दयानन्द सरस्वती से देश के अनेक गणमान्य व बुद्धिजीवी व्यक्तियों ने वेद प्रचार करने व पाखण्ड के विरुद्ध आर्यसमाज की स्थापना हेतु आग्रह किया, इस कारण आर्यसमाज की स्थापना की गई।

साभारः समझें तो? क्या है आर्य-समाज? और क्या है इसकी राष्ट्र को देन? सौजन्य- डॉ. दक्षदेव गौड़ एवं श्री दिनेश गुप्ता - प्रकाश आर्य (दिव्ययुग- नवम्बर 2015)

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