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इच्छाओं का सृजन

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Creation of desires

यह संसार स्वर्ग बने, यहाँ सबको सुख मिले, इसके लिये आवश्यक है कि मानव अपनी इच्छाओं, को सीमित बनाये और दूसरों को जीवन देकर फिर जीने की चाह बनाये। क्योंकि यही नाना इच्छाओं का अधिकारी, स्वतन्त्र, कर्त्ता और बुद्धिमान है। इसके अतिरिक्त अन्य प्राणी तो परतन्त्र, नियमों से आबद्ध, भोक्ता और स्वाभाविक ज्ञानवान् हैं। इससे वे चाह के द्वारा अधिक राह बनाने के अधिकारी नहीं हैं। इसलिये उनका जीवन तो स्वाभाविक रूप में ही अपरिग्रही होता है परन्तु मानव अपनी स्वतन्त्रता, कर्त्तव्य और बुद्धि का दुरुपयोग करके नित नई इच्छाओं का सृजन करके आवश्यकताओं को बढाता रहता हैं। आवश्यकताओं के बढ जाने से उसके स्वयं के जीवन में व्यग्रता बढ जाती है और अपने से निर्बल, निसहाय, निस्तेज प्राणी के आवश्यक, आवंटित भाग पर भी डाका डालना शुरु कर देता है। जिससे उनके जीवन का विनाश और इसके जीवन का ह्रास प्रारम्भ हो जाता है।

यह सीमित संसार असंख्य प्राणियों का निवास स्थान है। सभी को यहीं से, इसी से अपनी-अपनी आवश्यकताओं को पूरा करना है। सभी का अपना-अपना आवंटित भाग है। जब एक अपने अधिकारों का दुरुपयोग करके सीमा का अतिक्रमण कर दूसरों के अधिकार क्षेत्रों में प्रवेश पायेगा तो स्वभावतः ही दूसरों के अधिकार क्षेत्रों में प्रवेश पायेगा तो स्वभावतः ही दूसरों को सिकडुना पड़ेगा। सिकुड़ने की भी एक सीमा होती है। सीमा से अधिक सिकुड़ना निश्‍चित ही उसकी मौत का कारण बन जाता है। दूसरी ओर सीमा के विस्तार की भी एक सीमा है जिसको पार करने पर वह भी इसकी मौत का कारण बन जाती है। अतः दोनों और बढता प्रवाह मौत को उपस्थित करता है तो क्यों व्यर्थ में मौत को न्यौता देने वाली इच्छाओं का सृजन किया जाये?

इच्छाओं का सृजन करें, परन्तु सीमा तक। हमारी इच्छायें किसी अन्य के दुःख और मौत का कारण न बन जायें। यह ध्यान रखकर अपनी इच्छाओं का सृजन करें। एक इच्छा दूसरी इच्छा को जन्म देती है अतः इनको रोकने का एक मात्र तरीका संयम ही है। संयम के अतिरिक्त इच्छाओं को रोकने की अन्य कोई विधि नहीं है। इच्छओं की पूर्ति से कदापि इनका सृजन नहीं रुकता। एक की पूर्ति सम्भव न हुई कि दूसरी जन्म ले लेती है। इससे इनका प्रवाह कभी नहीं रुकता। प्रवाह न रुकने के कारण इनकी पूर्ति भी सम्भव नहीं रहती। इसलिये इनकी आपूर्ति का उपाय मात्र संयम और संतोष है। आज तक संसार में न किसी की सारी इच्छाओं की पूर्ति सम्भव हुई है और न ही भविष्य में होगी तो क्यों व्यर्थ में नाना इच्छाओं का सृजन करके अपनी और दूसरे की मृत्यु का कारण बनें। मृत्यु से ज्यादा भयंकर अन्य दुःख नहीं होता, इसलिये स्वयं ही मृत्यु का कारण उपस्थित करें, इससे ज्यादा मूर्खता अन्य क्या होगी? मानव बन कर मूर्ख कहलाये यह मानवता पर सबसे बड़ा कलंक है। अतएव बुद्धिमान व्यक्ति को भूल कर भी सीमाओं से अतिरिक्त इच्छाओं का सृजन नहीं करना चाहिये।

प्राकृतिक साधन-संसाधन सीमित हैं और इच्छायें असीमित हैं। इसलिये सीमित साधन-संसाधनों से असीमित इच्छाओं की पूर्ति सम्भव नहीं है, इस तथ्य को आर्यावर्तीय ऋषि-महर्षियों ने खूब जांचा-परखा और व्यवहार में लाकर देखा है तब जन सामान्य को अपनी जीवन में इसे अपनाकर सुखी बनने की प्रेरणा दी है और स्पष्ट घोषणा की है कि व्यक्ति का जीवन जितना ही सादा, सरल, अपरिग्रही और संयमी होगा वह उतना ही उच्च और महान होगा तथा इसके विरुद्ध जिसके जीवन में आडम्बर, क्लिष्टता, विलासिता, कठोरता और अधिक आवश्यकताएं होंगी वह उतना ही निम्न और निकृष्ट होगा। क्योंकि सृष्टि रचयिता ने यह संसार असंख्य जीवों के सुख-लाभ के लिये रचा है और मानव इन सबमें ज्येष्ठ-श्रेष्ठ है। अतएव ज्येष्ठ-श्रेष्ठ जीवन पाकर भी अपने छोटे भाईयों का हम छीने इससे ज्यादा निकृष्ट अन्य कौन हो सकता है? मानव जब अपनी इच्छाओं का निरन्तर विस्तार करता है तब स्वभावतः ही इसकी आवश्यकतायें बढ जाती हैं। बढी आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिये स्वभावतः ही प्राकृतिक साधन-संसाधनों की मांग बढ जाती है जिससे प्राकृतिक पदार्थों का अधिक दोहन करना पड़ता है। अधिक दोहन से स्वभावतः ही अन्य प्राणियों का हक छिन जाता है।

प्राच्य वैदिक आध्यात्मिक संस्कृति का जब तक संसार में प्रभुत्व रहा, यह प्राणियों से हरा-भरा रहा अर्थात लहलहाता रहा परन्तु जबसे भौतिकवादी संस्कृति का दुष्प्रभाव बढा है उसी दिन से प्राणी जगत नष्ट होता चला आया। अपने प्यारे भारत में तो कल तक प्राणियों का जीवन लहलहा रहा था। परन्तु दुर्भाग्य से भौतिकवादी-संस्कृति ने जिस दिन से प्रभाव बनाया है, उसी दिन से यह देश निष्प्राणी बनता चला जा रहा है। क्योंकि भौतिकवादी जीवनशैली में भौतिक साधन-संसाधनों का अधिक से अधिक प्रयोग ही उन्नत व्यक्तित्व का परिचायक माना जाता है। जिससे इच्छाओं का निरन्तर सृजन चलता रहता है। इच्छाओं की पूर्ति के लिये अधिक से अधिक साधन-संसाधन जुटाना ही जीवन का लक्ष्य होता है। जीओ और जीने दो के दर्शन को छोड़ स्वयं के जीने के लिये दूसरों के प्राणों को भी लेने से नहीं चूक रहा। बुद्धि बल से नाना तकनीकी आविष्कारों से अपने से हीन का धन-माल लूटना इनको अभीष्ट है। जिससे मानव ने एक-एक करके अपने से हीन सभी प्राणियों के हकों को छीन लिया और मौका मिला तो मार कर खा गया। इससे सारा देश चेतनों से खाली होता जा रहा है। पहले-पहल वन्य प्राणियों, फिर ग्राम्य-पशुओं और अब निर्धन-निर्बल-निस्तेज मानवों का सफाया किया जाने लगा है। सशक्त व्यक्ति निर्बल को धनी निर्धन को, सतेज निस्तेज को खाने लगा है। इस सबका कारणआवश्यकताओं की अधिक संरचना, विलासप्रिय जीवन और मात्र स्वयं के सुख से जीने की अभिलाषा।

इस स्थिति में प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को अपनी जीवन शैली से भौतिकवादी तड़क-भड़क को निकाल फेंकना होगा और इसके स्थान पर प्राचीन भारतीय आध्यात्मिक जीवन शैली सादा जीवन उच्च विचार को अपनाना होगा। अपने से हीन को जीने का हक देकर फिर स्वयं जीना होगा। इस सबका आधार इच्छाओं और आवश्यकताओं को कम करने वाली जीवन शैली को बनाना होगा। जीवन के हर कदम पर यह सोचना होगा कि यह संसार तेरी ही नहीं अन्य असंख्य प्राणियों की भी कर्म व भोग स्थली है। सभी को जीने का अधिकार है। सभी को आहार आदि आवश्यकताओं को यहीं से पूरा करना है। साधन-संसाधन सीमित हैं। जीवन शैली ऐसी हो जिससे दूसरों की भी सामान्य आवश्यकतायें पूरी हो जायें और अपनी भी। इसीलिये वेद भगवान कहता है कि बांटकर खाओ। अकेला खाने वाला पाप खाता है। पाप का फल दुःख है। दुःखों से सब बचना चाहते हैं इसलिये अकेला खाना छोड़ दो, पहले दूसरों को खिलाओं और फिर स्वयं खाओ अर्थात् जीने दो और जीओ के वैदिक दर्शन का जीवन का आधार बनाकर चलो। यह संसार स्वर्ग बन जायेगा। सादा जीवन उच्च विचा, सुखी बने सारा संसार। - ओमप्रकाश आर्य (दिव्ययुग- अक्टूबर 2018)

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