ऋषि दयानन्द अपने पीछे आर्यसमाजों को, अपने ग्रन्थों को, अपने चरित्र को और कई शिष्यों को छोड़ गए थे। इनमें से हरेक उनका स्मारक है। परन्तु जिस स्मारक की स्थिरता सबसे अधिक है, वह आर्यसमाज है। आर्यसमाज ऋषि दयानन्द का स्मारक ही नहीं, वह ऋषि का प्रतिनिधि भी है। ग्रन्थों की, सिद्धान्तों की, संस्थाओं की और वस्तुतः वेदों की रक्षा का बोझ आर्यसमाज पर है। ऋषि दयानन्द ने अपने पीछे अपना प्रतिनिधि आर्यसमाज को बनाया है। इस परिच्छेद में देखना है कि यह प्रतिनिधि बनने के योग्य भी था या नहीं?
आर्यसमाज के संगठन के सम्बन्ध में स्वयं आर्यसमाजियों में मतभेद है। अनेक विद्वान् आर्यपुरुषों ने भी वर्तमान संगठन से असन्तोष प्रकट किया है। ऋषि दयानन्द के किसी कार्य से असन्तोष प्रकट करना उचित न समझकर उन महानुभावों ने आर्यसमाज के वर्तमान नियमों तथा उपनियमों के लिए किसी ऐसे सज्जन को दोषी ठहरा दिया है, जिसे वह बुरा समझते थे। यहाँ तक कि आर्यसमाज के एक इतिहास लेखक ने तो आर्यसमाज के वर्तमान संगठन को ही बहुत-से वर्तमान दुःखों का मूल मान लिया है।
यह मानना पड़ेगा कि आर्यसमाज का वर्तमान संगठन धार्मिक संसार में नया है। इससे पूर्व किसी धार्मिक समाज में प्रजासत्तात्मक शासन प्रणाली का ऐसी पूर्णता से प्रयोग नहीं किया गया। प्रायः सब मत किसी एक अलौकिक प्रभाव के नीचे रहे हैं। रोमन कैथोलिक ईसाई रोम के पोप को अपने धर्म का गुरु मानते हैं। इस्लाम की नजर पहले खलीफा की ओर लगी रहती थी, अब मक्के की ओर लगी हुई है। बौद्ध भिक्षुओं के चुनाव में किसी प्रजामत का हाथ नहीं है। प्रोटैस्टैण्ट ईसाई चर्च यद्यपि प्रायः राजकीय शक्ति पर भरोसा रखता है, तो भी यह मानना पड़ेगा कि प्रोटैस्टेण्ट चर्च के मुख्य पुरुषों के चुनाव में आम ईसाइयों का कोई हाथ नहीं होता। धर्म के विषय में लोकमत का प्रतिनिधित्व ऋषि दयानन्द से पूर्व केवल एक स्थान पर स्वीकार किया गया था। हजरत मुहम्मद की मृत्यु के पीछे जो खलीफा हुए, वे सर्वसाधारण की ओर से चुने गए। परन्तु शीघ्र ही जो तलवार अब तक इस्लाम और अन्य मतों के झगड़े में सत्यासत्य निर्णय करने का अन्तिम साधन समझी जाती थी, वही इस्लाम को खिलाफत के अधिकारानधिकार के निर्णय के लिए भी अन्तिम प्रमाण मान ली गई। हजरत अली और उमय्यद वंश की टक्कर में इस्लाम का प्रजासत्तात्मक रूप कुचला गया।
उस समय भारतवर्ष के लिए राजनीति में भी प्रजासत्तात्मकवाद नया था। अभी किसी स्थान पर उसका पूर्णतया प्रयोग नहीं हुआ था। ब्रिटिश सरकार बहुत सम्भल-सम्भल कर कहीं-कहीं प्रजामत को थोड़ा-बहुत स्वीकार कर रही थी। और तो और, स्वयं इंगलैण्ड में पूरा प्रजासत्तात्मक शासन नहीं था। वहाँ का राजा प्रजा का चुना हुआ नहीं होता, आकस्मिक घटना का चुना हुआ होता है। राजा के घर में जो लड़का पहले पैदा हो गया, वही राजगद्दी का अधिकारी बन जाता है। इसे ऋषि दयानन्द की बुद्धि का अद्भुत चमत्कार कहना चाहिए कि उन्होंने धर्म के क्षेत्र में उस सिद्धान्त का पूर्णता के साथ प्रयोग किया, जिसे अन्य धर्म तो क्या राजनीति के नेता भी लेते हुए घबराते थे। मानते सब थे, परन्तु प्रयोग में नहीं ला सकते थे। समझा जाता था कि प्रजासत्तात्मक शासन को चलाने के लिए सदियों के शिक्षण की आवश्यकता है। भारतवर्ष में साधारण भारतवासी तो क्या, उनसे अधिक शिक्षित लोग भी उसे काम में नहीं ला सकते थे। ऋषि दयानन्द ने उस सिद्धान्त को केवल भली प्रकार समझा ही नहीं, उसे व्यवहार-योग्य बनाकर कार्यरूप में परिणत भी कर दिया, और यह सब कुछ अंग्रेजी और पाश्चात्य शिक्षा से अनभिज्ञ होते हुए किया। यदि ऋषि की परोक्षदर्शिता में किसी को सन्देह हो तो केवल एक इसी दृष्टान्त से उनका संशय दूर हो सकता है।
जो लोग आर्यसमाज के प्रजासत्तात्मक संगठन के गुणों या दोषों के लिए दूसरों को उत्तरदाता ठहराना चाहते हैं, वे ऋषि दयानन्द के साथ अन्याय करते हैं। शायद वह लोग चाहते हैं कि किसी दूसरे व्यक्ति को उत्तरदाता ठहरा देने से उन्हें समालोचना करने की स्वाधीनता मिल जाएगी और ऋषि दयानन्द पर दोष नहीं लगेगा। परन्तु उनकी ऋषि के प्रति यह भक्ति वस्तुतः उनसे ऋषि पर बहुत बड़ा दोषारोपण करा देती है। उनके कथन का यही तात्पर्य हो सकता है कि ऋषि दयानन्द अपनी कोई सम्मति नहीं रखते थे और कि आर्यसमाज के संगठन जैसे आवश्यक विषय पर उन्होंने किसी दूसरे की तान पर ही गा दिया है, स्वतन्त्र बुद्धि का प्रयोग नहीं किया। जिस पुरुष ने संसार की परवाह न करके एक नया रास्ता निकाल दिया, उसके सम्बन्ध में यह कहना कि उसने किसी दूसरे के कहने से आर्यसमाज का स्थायी संगठन बना दिया है, लाञ्छन लगाने से कम नहीं है। सम्मति तो सभी लोग लेते हैं, परन्तु चुनाव अपने अधीन होना चाहिए। जो आदमी ऋषि के चरित्र को ध्यान से पढेगा, वह निश्चयपूर्वक कह उठेगा कि हरेक विषय में इतिकर्तव्यता का चुनाव ऋषि दयानन्द अपनी मर्जी से किया करते थे।
परन्तु ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज का जो संगठन बनाया है, क्या वह सचमुच इस योग्य है कि किसी दूसरे को उसके बनाने का अपराधी ठहराया जाए? क्या वह आर्यसमाज की उन्नति में बाधक हुआ है?
लेखक की राय है कि आर्यसमाज का जो संगठन ऋषि दयानन्द ने बनाया है, वह बहुत उत्तम है। उससे भारतवर्ष की ही नहीं, अन्य देशों की धार्मिक तथा राज्य संस्थायें भी शिक्षा ले सकती हैं। समय के अनुसार जो छोटे-मोटे परिवर्तन आवश्यक हो जाएँ उन्हें कर कर डाला जाए, परन्तु प्रधान अंशों में वर्तमान संगठन श्रेष्ठ है।
आर्यसमाज के संगठन की श्रेष्ठता पर लिखने से पूर्व आवश्यक प्रतीत होता है कि कुछ शब्द इस विषय पर लिखे जाएँ कि आर्यसमाज क्या वस्तु है? क्या वैदिकधर्मी मात्र के समूह का नाम आर्यसमाज है? या वैदिक धर्म के प्रचार के लिए जो सोसायटी बनाई गई है, वह आर्यसमाज है? दोनों प्रश्नों के उत्तर स्पष्ट हैं। यह आवश्यक नहीं कि वैदिकधर्मी मात्र आर्यसमाज के सदस्य हों, क्योंकि आर्यसमाज के सदस्य होने के लिए चन्दे की शर्त आवश्यक है। संन्यासी चन्दा नहीं दे सकते और न गरीब लोग दे सकते हैं। ऐसी दशा में वे लोग सामान्यतया आर्यसमाज के सभासद् नहीं बन सकते? तब क्या वे वैदिक-धर्मी (आर्यसमाजी) नहीं हैं? वे वैदिकधर्मी (आर्यसमाजी) अवश्य हैं। आर्यसमाज से बाहर भी वैदिक धर्मी (आर्यसमाजी) हैं और हमेशा रहेंगे। आर्यजगत् आर्यसमाज तक परिमित नहीं है। आर्यसमाज तो उन लोगों की संस्था है, जो वैदिक धर्म के प्रचार की अभिलाषा रखते हुए संगठन में शामिल होते हैं।
दृष्टान्त से यह विषय और अधिक स्पष्ट हो जाता है। एक शहर में तीन लाख निवासी निवास करते हैं। उनमें से वोद देने के अधिकारी केवल 25 हजार है और उनमें से भी म्युनिसिपल कमेटी के चुनाव में केवल 10 हजार निवासी भाग लेते हैं। ऐसी दशा में क्या वह 10 हजार निवासी ही शहर के निवासी समझे जाएँगे? उत्तर, हाँ में नहीं हो सकता। उसी प्रकार आर्यजगत् आर्यसमाज से बहुत बड़ा है। आर्यसमाज शब्द भी दो अभिप्रायों से प्रयुक्त होता है। सामान्यतया ऋषि दयानन्द की शिक्षाओं को स्वीकार करने वाला हर वैदिकधर्मी व्यक्ति आर्यसमाजी माना जाता है। आर्यजगत् के लिए आर्यसमाज शब्द का प्रयोग होता है। यह विस्तृत आर्यसमाज है।
आर्यसमाज एक निश्चित संगठन भी है। यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक वैदिकधर्मी आर्यसमाज में सम्मिलित भी हो। आर्यसमाज से बाहर भी वैदिकधर्मी रह सकते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि आर्यसमाज उन वैदिकधर्मियों का संघ है, जो वैदिक शिक्षाओं के प्रचार और रक्षणार्थ इकट्ठे होते हैं। वैदिकधर्मियों का संघ आर्यसमाज से बहुत बड़ा है। यदि आर्यजगत् और आर्यसमाज के भेद को ठीक प्रकार से समझ लें तो यह आक्षेप करने का अवसर नहीं रहता कि संगठन ने आर्यसमाज को संकुचित बना दिया है। संकुचित बनाने का दोष आर्यसमाज के नियमों के बनाने वाले के सिर नहीं मढा जा सकता। वह दोष तो हम लोगों का है जो वैदिक धर्म को आर्यसमाज तक परिमित समझ बैठे हैं। यदि हम इस बात को अवगत कर लें कि वैदिकधर्मियों का समूह आर्यसमाज की संस्था से अधिक विस्तृत है और आर्यसमाज उन लोगों का संगठन है जो वैदिक धर्म के प्रचार तथा रक्षण के लिए सभा में सम्मिलित होने की इच्छा रखते हैं तो सम्पूर्ण कठिनाई दूर हो जाती है। उस दशा में आर्यसमाज का संगठन अत्यन्त उत्कृष्ट प्रतीत होगा।
आर्यसमाज के वर्तमान संगठन की पूर्णता और सुन्दरता को वे लोग भली प्रकार समझ सकेंगे, जिन्होंने भिन्न-भिन्न देशों की राजनीतिक और धार्मिक संस्थाओं का अनुशीलन किया हो। थोड़ी बहुत बातों में समयानुकूल परिवर्तन होते ही रहते हैं। परन्तु सामान्य सिद्धान्त में प्रतिनिधित्व की दृष्टि से आर्यसमाज का संगठन एक प्रकार से आदर्श है। सभासद् बनने की शर्त यह है कि वह व्यक्ति ग्यारह मास तक चन्दा देने वाला सदस्य रहा हो। चन्दा आमदनी का शतांश है। गरीब-से-गरीब व्यक्ति भी आर्यसमाज का सदस्य रह सकता है, क्योंकि वोट के अधिकारी होने के लिए कोई राशि निश्चित नहीं है, छोटी-से-छोटी आमदनी का शतांश है। यही कारण है कि आर्यसमाज कभी अमीरों का संघ नहीं बन सकता। अधिकारियों का चुनाव प्रतिवर्ष होता है। प्रतिनिधियों का चुनाव तीसरे वर्ष आवश्यक है। सर्वसाधारण की सम्मति को जितनी अच्छी तरह आर्यसमाज के नियमानुसार बनी हुई सभायें प्रमाणित करती हैं, शायद ही दूसरी कोई सभायें करती हों। स्विटजरलैण्ड और अमेरिका को तो छोड़ दीजिये, साधारणतया अन्य देशों के राजनीतिक संगठन भी लोकमत के ऐसे अच्छे प्रतिनिधि नहीं है। संगठन के मजबूत होने का ही यह फल है कि बीसियों धार्मिक और राजनीतिक चोटों को खाकर भी आर्यसमाज की शक्ति निरन्तर बढती ही गई है।
आर्यसमाज के संगठन पर एक आक्षेप हो सकता था। एक धार्मिक संस्था के धर्म सम्बन्धी प्रश्नों को हल करने के लिए जिस प्रकार के प्रबन्ध की आवश्यकता है, वह आर्यसमाज में नहीं था। आर्य सभासदों, आर्य प्रतिनिधि सभाओं या सार्वदेशिक सभा के सदस्यों तथा अधिकारियों में किसी के लिए धार्मिक योग्यता आवश्यक नहीं थी। परिणाम यह था कि सम्पूर्ण आर्यसंसार में एक भी प्रामाणिक सभा ऐसी नहीं है, जो आर्य जनता का धार्मिक नेतृत्व कर सके। इसका उपाय करने के कई यत्न हुए हैं। पहले विद्वत्सभा बनी, फिर धर्मार्य सभा की स्थापना हो गई, जिससे वह न्यूनता पूरी हो गई। लेखक की राय है कि इस विषय में आर्यसभासदों का भी एक कर्त्तव्य है। आर्य प्रतिनिधि सभाओं में ऐसे विद्वानों की अधिक संख्या को भेजना, जो धर्म के विषय में राय देने का अधिकार रखते हों, आर्य सभासदों का कर्त्तव्य है। नियमों का इतना ही दोष है कि उन्होंने सम्मति देनेवालों को यह स्पष्टता से नहीं बताया कि वे कैसे व्यक्तियों को अपने प्रतिनिधि चुनें। किन्तु समझदार पुरुषों को इतने विस्तृत निर्देशों की आवश्यकता भी नहीं रहती। आज यदि आर्यसमाज के प्रबन्ध में व्यावहारिक पुरुषों की प्रधानता दिखाई देती है, तो उसका कारण केवल आर्यसभासदों की उपेक्षादृष्टि है।
ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज का जो संगठन बनाया है, उसकी मुख्य विशेषताएँ दो हैं। वह बिल्कुल स्वाधीन और अपने आपमें सम्पूर्ण है और साथ ही लोकमत का सच्चा प्रतिनिधि है। आर्यसमाज अपने सभासदों की भलाई के लिए किसी अन्य संगठन की अपेक्षा नहीं करता। यदि अवसर आ पड़े तो वह अपने सभासदों की सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकता है। यह लोकमत को प्रतिबिम्बित करने का उत्तम साधन है। यही दो कारण हैं कि वह स्थिर है। यदि आर्यसमाज का ऐसा अच्छा संगठन न होता तो जो मजबूत झकोरे इसे गिराने के लिए आते रहे हैं, वे कभी के सफल हो गए होते।
साभारः आर्यसमाज का इतिहास (प्रथम भाग), सम्वत् 2052 में सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित संस्करण। - प्रो. इन्द्र विद्यावाचस्पति (दिव्ययुग- नवम्बर 2015)
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