विशेष :

आतंकवाद के विनाशक श्रीराम (2)

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Destructive Shriram of Terrorism

श्रीराम के समर्पित जीवन की चमत्कारपूर्ण सफलता का मूल्यांकन सर्वथा असम्भव सा है। श्रीराम ने जिस अभिशाप से इस धरा को मुक्त किया उसकी झलक वाल्मीकि रामायण के इन उद्धरणों से मिलती है जो इस समय के हैं जब श्रीराम पन्द्रह वर्ष के थे और मुनि विश्‍वामित्र उन्हें महाराजा दशरथ से अपने यज्ञ की रक्षा के लिये मांगने आए थे। जब राजा दशरथ श्रीराम को न भेजकर स्वयं जाना चाहते थे तो उन्होंने विघ्नकारी राक्षसों के बारे में जानना चाहा। विश्‍वामित्र जी ने बतलाया-
‘‘महाराज! रावण नाम से प्रसिद्ध एक राक्षस है जो महर्षि पुलस्य के कुल में उत्पन्न हुआ है। बलशाली और महापराक्रमी होकर बहुसंख्यक राक्षसों से घिरा हुआ निशाचर तीनों लोकों के निवासियों को अत्यन्त कष्ट दे रहा है। सुना जाता है कि राक्षस राज्य रावण विश्रवा मुनि का औरस पुत्र तथा साक्षात कुबेर का भाई है। वह महाबली निशाचर इच्छा रहते हुए भी स्वयं आकर यज्ञ में विघ्न नहीं डालता। अपने लिये इसे तुच्छ कार्य समझता है। इसलिये उसी की प्रेरणा से दो महान् बलवान राक्षस मारीच और सुबाहु यज्ञों में विघ्न डाला करते हैं।’’

आगे बढ़ने से पहले ‘सुविज्ञ’ बुद्धिजीवियों का ध्यान इस ओर आकृष्ट कर लें कि रावण वंशावली के आधार पर अनार्य नहीं था। महर्षि पुलस्य के कुल को, रावण के पिता विश्रवा मुनि को, उसके भाई कुबेर को कोई भी अनार्य नहीं कहेगा। परन्तु रावण अपने दुष्कर्मों के कारण कू्रर, अनार्य और राक्षस कहलाया। इस प्रकार राम-रावण का युद्ध अनुशासन पर आधारित क्रूर विद्रोह के बीच युद्ध था ।

महाराजा दशरथ ने उत्तर दिया ‘‘मुनिवर मैं उस दुरात्मा रावण के सामने युद्ध में नहीं ठहर सकता। धर्मज्ञ महर्षि आप मेरे पुत्र तथा मन्दभागी दशरथ पर भी कृपा कीजिए, क्योंकि आप मेरे देवता तथा गुरु हैं। युद्ध में रावण का वेग तो देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, गरुड़ और नाग भी नहीं सह सकते फिर मनुुष्यों की क्या बात है? मुनिश्रेष्ठ! रावण युद्ध में बलवानों के बल का अपहरण कर लेता है। अतः मैं अपनी सेना और पुत्रों के साथ रहकर भी उससे तथा उसके सैनिकों से युद्ध करने में असमर्थ हूँ।’’

इस क्रूर आतंकवादी रावण का आतंक सिद्धाश्रम में कहर ढा रहा था, जिसकी रक्षा का उत्तरदायित्व महाराज दशरथ पर था। उस काल के अन्य विद्वान, ऋषि और तपस्वी भी रावण से परेशान थे। यज्ञ के अवसर पर सभी आर्य पद्धति से सोचने वालों को एक स्थान पर विचार विनिमय का भी सुअवसर मिला था।

यज्ञ की प्रक्रिया के अतिरिक्त एक और विषय उनकी चर्चाओं पर भारी पड़ रहा था। उस यज्ञ से सबकी आशा ऐसी सन्तान से थी जो इस धरा को आततायी रावण के अत्याचार और क्रूरता से मुक्त कर सके। सोलह सत्रह वर्ष पश्‍चात् महर्षि विश्‍वामित्र श्रीराम की मांग को लेकर उपस्थित हुए थे। उस राम को जो महर्षि वशिष्ठ से वेद-वेदांग की शिक्षा ले रहे थे और आयु के उस मोड़ पर थे जहाँ शस्त्र-अस्त्र की शिक्षा का आरम्भ भी होना था। महर्षि विश्‍वामित्र पूर्व काल में शूरवीर राजा थे और इस समय ब्रह्मविद्या और शस्त्रविद्या दोनों में पारंगत थे। वे महर्षि वशिष्ठ की ब्रह्मविद्या और क्षत्रियोचित शस्त्रविद्या दोनों की शिक्षा दे सकते थे। परिणाम रावण द्वारा पोषित आतंकवाद के प्रबल प्रतिनिधि मारीच, सुबाहु और ताड़का का वध हुआ जो छत्तीस-सैंतीस वर्ष के पश्‍चात स्वयं रावण को काल का ग्रास बनाने वाला पहला प्रहार था। इस काल खण्ड की पुष्टि सीता जी द्वारा अपने अपहरण से पूर्व संन्यासी का कपट वेश बनाये हुए रावण को स्वयं का परिचय देने से होती है।

सीता जी के अनुसार विवाह के समय श्री राम की आयु पच्चीस वर्ष और उनकी स्वयं की आयु अठारह वर्ष थी। विवाह के बाद बारह वर्ष वे अयोध्या में रहे। वनवास की घटना विवाह के तेरहवें वर्ष की है। तात्पर्य यह है कि राजा दशरथ से श्रीराम को दूसरी बार लाने के लिये आर्यावर्त्त के हितैषियों को और बारह वर्ष प्रतीक्षा करनी पड़ी तथा राजा को अपने प्रिय पुत्र को युवराज देखने की अभिलाषा अपने साथ ही ले जानी पड़ी।

यदि कैकेयी की ऐतिहासिक भूमिका न होती तो श्रीराम पिता की अभिलाषा पूर्ण करने के लिये अयोध्या के राजा बन जाते और रावण के आतंकवाद को न जाने कितनी पीढ़ियों के लिये जीवन प्रदान कर जाते। बाद की घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि अयोध्या से सैनिक अभियान द्वारा लंका पर अधिकार नहीं किया जा सकता था। दण्डकारण्य राक्षसों से भरा हुआ था। वहाँ राक्षस आक्रामक मुद्रा में थे और ऋषि प्रतिरक्षात्मक उपायों में लगातार पिछड़ रहे थे। मारीच, सुबाहु और ताड़का वाली बात बारह-तेरह वर्ष पुरानी पड़ चुकी थी। जनस्थान खर और दूषण के कब्जे में था। किष्किन्धा का राजा बाली आतंकवादी रावण के साथ सुविधान की सन्धि किये हुए था। इन सभी क्षेत्रों को नक्शे पर देखे बिना उस लम्बी आतंक की परछाईं की कल्पना भी नहीं की जा सकती, जो अयोध्या के राज्य पर भयानक रूग से मण्डरा रही थी। इस बार राम का वियोग राजा को इतना भारी पड़ा कि वह अपने प्राणों की रक्षा भी न कर सके।

दण्डकारण्य पहुंचते ही श्रीराम का ऐतिहासिक कार्य आरम्भ हुआ। वहाँ रहने वाले मुनियों ने उन्हें कुछ कंकाल दिखाए और कहा- ‘‘स्वामी! जो राजा प्रजा से उसकी आय का छठा भाग कर के रूप में ले ले और पुत्र की भांति प्रजा की रक्षा न करे उसे महान् अधर्म का भागी होना पड़ता है। आइये, देखिये ये भयंकर राक्षसों द्वारा बारम्बार अनेक प्रकार से मारे गए बहुसंख्यक पवित्रात्मा मुनियों के शरीर दिखाई देते हैं। पम्पा सरोवर और उसके निकट बहने वाली तुङ्गभद्रा नदी के तट पर जिनका निवास है जो मन्दाकिनी के किनारे रहते हैं तथा जिन्होंने चित्रकूट पर्वत के किनारे अपना निवास स्थान बना लिया है, उन सभी ऋषियों-महर्षियों का राक्षसों द्वारा महान संहार किया जा रहा है।’’

श्रीराम दण्डकारण्य इसलिये भेजे गये थे कि वे राजा को अधर्म का भागी होने से बचाएं और रावण का समूल नाश करें। श्रीराम ने राक्षसों के वध की प्रतीज्ञा की। उस प्रतिज्ञा का अनुपालन करते हुए धीरे-धीरे दण्डकारण्य को राक्षस विहीन सा कर दिया और पंचवटी पर अपना निवास बनाकर जनस्थान के खर, दूषण, त्रिशिरा आदि राक्षसों की छावनी के अत्यन्त निकट चुनौतीपूर्वक स्थिर हो गए। शूर्पणखा प्रकरण खर-दूषण के नाश तथा सीता हरण का कारण बना। अब तक श्रीराम दण्डकारण्य और जनस्थान को मुक्त करा चुके थे। अब लंका को ढहाना बाकी था। परन्तु उससे भी पहले बाली की समस्या थी। उन्होंने सुग्रीव से मित्रता करके बाली का नाश किया। कुछ लोगों का विचार है कि श्रीराम के लिये यह उचित नहीं था। वह सीधे बाली से बात कर सकते थे।

बाली वध के पश्‍चात् आतंकवाद लंका में ही मुंह छिपाए अपने अन्त की प्रतीक्षा कर रहा था। विभीषण सदा रावण के क्रियाकलाप के विरुद्ध था। उसने मेघनाद को यह कहा- ‘‘महर्षियों का भयंकर वध, सम्पूर्ण देवताओं के साथ विरोध, अभिमान, रोष, बैर और धर्म के प्रतिकूल चलना ये सभी दोष मेरे भाई में मौजूद हैं, जो उसके प्राण और ऐश्‍वर्य दोनों का नाश करने वाले हैं। जैसे बादल पर्वतों को आच्छादित कर देते हैं उसी प्रकार इन दोषों ने मेरे भाई के सारे गुणों को ढक दिया है।’’

पन्द्रह वर्ष की आयु से लेकर इक्यावन वर्ष की आयु तक श्रीराम ने जीवन का एक-एक पल रावण रूपी अधर्म और आतंक के निराकरण में व्यतीत किया तथा आहत और मृतप्रायः आर्यावर्त्त को पुनः प्राण प्रतिष्ठित किया। - राजेन्द्र पाल गुप्त (दिव्ययुग- अक्टूबर 2012)

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