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आज हमें राम का आदर्श चाहिये

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Today We Need the Ideal of Ramराम का धरा पर अवतरण देवरक्षा, देवकार्य के लिये हुआ । ऐसे महापुरुषों का आगमन प्रभु की विशेष कृपा से होता है । संकट काल में ही भक्त जन प्रभु से प्रार्थना करते हैं । क्योंकि दानवों से देव आतंकित होते हैं। देव भी अकेले नहीं रहते हैं । उनके साथ सन्त, मुनि, महात्मा, संन्यासी सबकी प्रार्थनाएँ भी रहती हैं । 

प्रभु कृपा से राम का जन्म अकारण नहीं हुआ । भगवान राम ने सबको आश्‍वस्त किया । आप निर्भय हों, मैं राक्षसों का विनाश करूंगा।
किसी भी देश का आदर्श दानवेन्द्र नहीं हो सकते हैं । यद्यपि देव-दानव दोनों ही एक पिता की सन्तान हैं, परन्तु आदर्श तो होंगे योगियों में रमण करने वाले राम।
इन्द्र का सम्बन्ध इन्द्रियों से है । राम हृदय में रमने वाले भगवान् है । धीरे-धीरे युगान्तर में इन्द्र की दुर्दशा से देवताओं की हीन दशा हो गई। सन्त तुलसीदास ने देवताओं को स्वार्थी कहा है। उन्हें कुत्ते के समान बताकर मजाक भी उड़ाई है ।

तुलसीदास ने देवताओं को भी घृणा की दृष्टि से देखा है । क्योंकि वह भी निरे स्वार्थी हो गये थे । पर पूरे मानस में देवगण पुष्प वर्षा करते ही दिखाये गये हैं । तुलसीदास देवगणों के सामने राक्षसों से घृणा करते हैं, क्रुद्ध है । पर देवताओं से भी असन्तुष्ट हैं । ऐसा क्यों हुआ इसे समझना होगा । विलास, अविवेक और अन्याय के कारण। आज राम बनकर रावणों को मारना होगा । राम बनकर अहिल्या का उद्धार भी करना होगा।

राम ने जनकपुर जाते हुए अहिल्या का उद्धार किया । उसे इन्द्र के पाप से मुक्त किया । राम इन्द्र के पापों को जानते थे । उसके पुत्र जयन्त और बालि के पापों को भी जानते थे । राम इन्द्र के नहीं, अपितु कामी इन्द्र के विरोधी थे । जो लोभी है, ईर्ष्यालु है, वह हर समय गद्दी की चिन्ता में स्वयं भ्रष्ट होता है तथा दूसरों को भी भ्रष्ट करता है ।

रावण ऋषि-मुनियों को मारता है तथा इन्द्र ऋषियों की तपस्या भंग करता है । ऋषित्व से गिराता है। राजा होना बुरा नहीं है, किन्तु विदेह जैसा राजा हो । राम जीवन में केवल ऋषियों, बनवासियों और पिछड़ों के यहाँ जाते हैं, कभी किसी राजा के यहाँ नहीं। केवल एक अपवाद है । विदेह जनक के यहाँ ! वहाँ भी गुरु विश्‍वामित्र के कहने पर ।

राम ने अयोध्या में इन्द्र की अप्सरा-पद्धति के विरुद्ध एक स्त्रीव्रत प्रतिष्ठित किया। साथ ही सीता रहित जीवन भी जिये। सीता के निवार्सन के बाद भी पर राम ने दूसरा विवाह नहीं किया। किसी नारी से बात तक नहीं की ।

राम वे आदर्श हैं, जो जीवन भर एक के लिये रोते रहे, लड़ते रहे । उन्होंने इन्द्र पद्धति के विरुद्ध एक पत्निव्रत की स्थापना की थी । क्योंकि पति-पत्नि की मर्यादा बनानी थी । इन्द्र ने अहिल्या की देह को अपवित्र किया था। स्त्री देह अहिल्या का संकट देह-सम्बन्धी है । राम विदेह पुत्री को अपनाते हैं । यहाँ देह नहीं, मन के द्वारा किया जाने वाला प्रेम तत्व महत्त्वपूर्ण है ।
प्रेम तत्व कर मम अरु तोरा, जानत प्रिया एक मन मोरा॥

रावण अपने समय का इन्द्र ही था। वह देवेन्द्र नहीं, दानवेन्द्र था । वनवास के समय इन्द्र-पुत्र जयन्त ने सीता के साथ बल प्रयोग किया । वह कामी पुत्र था । राम ने उसे दण्डित किया, मारा नहीं । सबको मारा भी तो नहीं जा सकता है । मात्र एक आँख फोड़ डाली । इन्द्र चुप रहे । प्रतीत होता है कि इन्द्र पुत्र के व्यवहार से तंग आ गये थे । राम-रावण युद्ध में इन्द्र मौन रहे । कितना आश्‍चर्य ! देवों का कार्य और देवेन्द्र मौन रहे ?

राम-रावण युद्ध के निर्णायक दौर में इन्द्र ने अपना रथ भेजा । राम विजय की ओर थे । फिर भी रथ स्वीकार कर लिया, लौटाया नहीं। दुनियाँ एक बार पुन: इन्द्र के स्वार्थ से परिचित हो गई । क्या यह रथ प्रारम्भ में नहीं भेजा जा सकता था ? परन्तु राम ने इन्द्र को एक काम और सौंपा, राम-पक्ष के घायल अधमरों को चैतन्य करते हेतु । इन्द्र की सुधा वृष्टि से सभी सैनिक स्वस्थ चैतन्य हो गये ।

गोस्वामी जी यहाँ राम से इन्द्र का अपमान भी नहीं होने देते हैं । किन्तु एक ऐसा काम सौंपते हैं, जिसे वे स्वयं नहीं करना चाहते । महान् व्यक्ति सब काम स्वयं नहीं किया करते हैं ।

युद्ध में लंका विजय पर माला पहनाने वाले इन्द्र हैं । ऐसे इन्द्रों की कमी नहीं । राम को इनकी आवश्यकता भी है । क्योंकि युद्ध के साथियों से राज-काज नहीं हो सकता । उसके लिये इन्द्र का सहयोग अपेक्षित है । हाँ, ताड़ना सहित राम ने इन्द्र को अपने दरबार में स्थान नहीं दिया । वहाँ स्थापित हुए हनुमान ! न इन्द्र, न सुग्रीव और न विभीषण । राम इन्द्र के प्रति सावधान थे। उसे दण्ड देकर पुन: अपने काम पर लगा दिया । और पूजा की दुनियां से उसे बाहर कर दिया । पूजनीय हुए हनुमान । वनवासी हनुमान हाथ में गदा लेकर राम राज्य की रक्षा करने लगे । हनुमान मन के मन्दिर में विराजमान और इन्द्र मन के मन्दिर से बाहर हो गये । राम की इस विजय को पूर्णता तक पहुंचाया सन्त तुलसीदास ने ।

राम की प्रेरणा, केकैयी का त्याग- माता केकैयी ने ईर्ष्यावश होकर नहीं, बल्कि सोच-समझकर राम को वन में भेजा था । प्रेरणा राम की थी । राम को अभिषेक की घोषणा हुई । सारी अयोध्या आनन्द विभोर हो उठी । पर उस रात राम नियम से प्राणायाम में बैठे थे । राम को ऐसा लगा कि देवता लोग कुछ विनती कर रहे हैं ।
राम के मन में यह आभास हुआ कि देवता पूछ रहे हैं कि रावण संहार वाली उस प्रतिज्ञा का क्या हुआ ? उसी समय राम उठकर सीधे माँ केकैयी के पास जाते हैं । केकैयी कल होने वाले प्रिय पुत्र के अभिषेक की वार्ता से प्रसन्न थी। पर फिर पूछा राम ! तुम यह क्या कर रहे हो ? लोग मुझे कहेंगे कि मैं तुम्हारे अभिषेक की भंगकारिणी हूँ रात में क्या हो गया जो तुम यहाँ आये हो ? राम बोले, माँ मैं क्या करूं ? मेरी समाधि भंग हो गई । मैं कल राजकाज में बंधने के बाद हिल भी न सकूंगा। पर ऐसा लगा कि देवता लोग मेरे से कह रहे हैं कि आप राज्य का भार मत सम्हालिये । अत: कुछ स्पष्ट न हो पाया और मैं आपके पास चला आया हूँ । वस्तुत: मेरे मन में राज्य की आकांक्षा नहीं है ।

केकैयी ने परिहास में कहा कि लगता है कि अंकस्थ जानकी को देखकर कुछ और तरह लग रहा होगा। यह सुनकर राम की आंखों में आंसू आ गये। वे कहते हैं कि तुमने मुझे इतनी विद्या सिखाई । उस दण्ड कला ‘विचित्र गमनश्री’ का क्या होगा । केकैयी ने पूछा कि बताओ तुम्हें अपनी धनुर्विद्या से क्या करना है ? तीक्ष्ण नेत्र देख केकैयी गम्भीर हो गई ।

केकैयी के सामने स्व और समाज का द्वन्द्व खड़ा हो जाता है । पं. सातवलेकर जी ने बाल्मीकि रामायण के विवेचन में लिखा है कि भौतिकवादी रावण का प्रभाव बढता जा रहा था । वशिष्ठ, विश्‍वामित्र, अगस्त्य आदि ऋषि चिन्तित थे । रावण की बढती शक्ति को रोकने का संकल्प लिया गया । माता केकैयी को इसकी जानकारी थी ।

केकैयी ने समाज के लिये अपने स्व को होम कर दिया । ममता को छोड़ा, कर्त्तव्य को महत्व दिया । केकैयी के वर्चस्व ने ही राम को सही दिशा दी । अन्यथा अयोध्या में ही रामकथा सिमटकर रह जाती । भौतिकवादी संस्कृति का वर्चस्व हो जाता । माँ केकैयी एक श्रेष्ठ और कुशल राजनीति की धुरी थी, जिसके कारण राम आज आदर्श बने ।

राम को याद करके रावण का तर्पण करो-दुष्टता का दण्ड कभी-कभी मरने के बाद भी भोगना पड़ता है। रावण को ही देखो, त्रेता युग समाप्त होकर कलियुग आ गया है। फिर भी वह प्रतिवर्ष मारा जाता है ।

रावण मारा तो बहुत स्थानों पर जाता है, पर उसका तर्पण भी होता है । बस्तर की जनजातियां गोंड, छत्री और प्रजा पौष की पूर्णिमा से दो दिन पूर्व अपने गांव के समीप किसी तालाब के तट पर धान की बालियों से रावण के दस सिर बनाती हैं और फिर गाँव का मुखिया तीर मारकर रावण के सिरों को मार गिराता है । इसके बाद चावल और आटे की रोटी पानी में विसर्जित करके रावण का तर्पण किया जाता है। अन्त में विभीषण का राज्याभिषेक होता है ।
गंग-संग बरसाती नाले कुछ दिन तक बहते जैसे।
सबमें राम और एक रावण साथ साथ रहते ऐसे॥
जिस पल धनुष राम का उठता, रावण जाता है मारा।
विजय सदा श्रम की होती है यही दशहरे का नारा ॥

राम को हनुमान चाहिये- एक बार एक महात्मा जी ने पूछा कि बताओ ! सबसे प्रथम स्वयंसेवक कौन था ? सबने पृथक-पृथक उत्तर दिये । परन्तु वे सन्तुष्ट नहीं हुए । अन्त में उन्होंने ही बताया कि सर्वप्रथम स्वयंसेवक भक्त हनुमान जी बने थे। किसी राष्ट्रभक्त के मन में हनुमान जी का यही स्वरूप हो सकता है।
हनुमान बनकर ही देश की पहाड़ सदृश समस्याओं से निपटा जा सकता है। आज समस्याओं का जो रावण अपने देश को झकझोर रहा है, उसके विपरीत अपने साथियों, रामभक्तों को ललकारना होगा । आओ ! सभी साथी हनुमान बनो और राम को मणिमाला की मणि की तरह हृदय में धारण करो । निश्‍चय ही हनुमान बनने पर ही अयोध्या जीती जायेगी और रावण भी मारा जायेगा। नकली हनुमान बनाने से साथी का अभाव खटकेगा। बिना सच्चे हृदयग्राही रामभक्त हनुमान के उसकी वानर सेना भी क्या कर सकेगी !•

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