विशेष :

आचरण की पवित्रता से उपजते हैं प्रभावी शब्द

User Rating: 0 / 5

Star InactiveStar InactiveStar InactiveStar InactiveStar Inactive
 

प्रजातंत्र में अधिकारों से लेकर नागरिक कर्तव्यों तक को जन-जन तक पहुँचाने का सकल्प दोहराया गया है। इसमें मंशा यह रहती है कि देश के साथ हर नागरिक का जुड़ाव पैदा हो। साहित्य में बहुजन-हिताय, बहुतजन-सुखाय का नारा तो दिया गया, परन्तु अकसर इसेक क्रियान्वयन में गड़बड़ी हुई है। क्या ऐसा साहित्य विशेषकर कविता, ऐसी नहीं लिखी जा सकती, जिसे सब समझ लें? सब का मतलब अधिकांश जन से हैं। आखिर,ऐसे लेखन का मतलब भी क्या, जिसे कोई भी न समझ पाएं। आज अधिकांशतः कविता ऐसी लिखी जा रही है कि उसमे समझें भी तो केवल उसका या कवि भगवान। यह समस्या हिंदी कविता में चिंता के स्तर तक मौदजूद है। कवी लोग अक्सर ऐसी अबूझ कविताएँ करने में लगे है जो ''खग जाने खग ही कर भाषा''।

एक समय ऐसा भी था जब कबीर, तुलसी, रहीम दास कविता करते थे। ये कवि आज भी पढ़े जाते हैं। इतना लम्बा समय बीतने के बाद आखिर ये कवि समाज में जीवित हैं तो किस की बदौलत, अपनी रचनाओं की ताकत से, यह बात जनता समझती है, लेकिन आज के कवि ने गंगा उल्टी बहादी। इसलिए, जनता ने लगभग इनसे पीठ घुमा ली। सभी साहित्यकार चाहते यही है कि वे लोकप्रिय हों, अधिक से अधिक लोगों के पास पहुँचे। लेकिन जब वे लिखने के लिए अपना मन बनाते हैं तब जनता के मन का ध्यान नहीं रखते। गाँधीजी अक्सर कहते थे कि 'अगर किसी की पुस्तक पढ़ते हुए मैं उकता हूँ तो इसमें मेरा कोई दोष नहीं। दोष इसके लिखने वाले का है।' उपभोक्तावादी इस समय में उस्ताद की गुणवत्ता के लिए उत्पादक ही जिम्मेदार है। आज के आदमी की कठिनाइयाँ अलग ढंग की है, जिन्हें या तो उसने स्वयं पैदा किया है या फिर समय और परिस्थितियों ने पैदा किया है या फिर समय और परिस्थितियों ने प्रस्तुत किया है। लेकिन यह भी सच है कि हर स्थिति से निपटने का कोई न कोई उपाय जरूर होता है, बस उपाय को खोजने की जरुरत है। ज्योतिषियों ने खोजा तो वे टी.वी. पर चढ़कर घर-घर पहुँचे। उत्पादनकर्ताओं ने खोजा और वे विज्ञापनों के जरिए घर-घाट पहुँचे, भले ही उनके मनतव्य पुनीत नहीं है। मेरा मतलब ज्योतिष और उद्योग के साथ साहित्य की तुलना करना नहीं है, पर मूल प्रश्न यही है कि आखिर जनता तक साहित्य को पहुँचाया कैसे जाए?

यह भी सत्य है कि, एक व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के भाव निर्माण में सबसे बड़ी भूमिका साहित्य की ही है। इसके लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। उदहारण के लिए स्वतंत्रता आंदोलन के समय के साहित्य को देखना चाहिए। उस समय के सब बड़े-बड़े रचनाकार, लेखक जनता को संबोधित कर रहे थे और जनता उसे समझ रही थी। इसी संदर्भ में यह भी ध्यान रहे कि अब तुलना में साक्षरता का प्रतिशत तब कम था, लेकिन समझ का स्तर इतना था कि जनता अपने कवियों का संदेश आसानी से समझ लेती थी। आज ऐसा क्यों नहीं है? आसानी से समझ में आने वाले इसके दो कारण हैं पहला तो यह कि आज स्वतंत्रता आंदोलन जैसी परिस्थितियाँ नहीं है और दूसरा यह कि समाज की आँखों में कोई एक सपना या उद्देश्य नहीं है। तब वे लेखक जनता के मन को समझकर उसकी भावना को व्यक्त करते थे और वे जनता के मध्य जीते और मरते थे। आज इस संतुलन से अन्तर आया है।

अक्सर कवि, लिखने-पढ़ने वाले लोग अपने को जनता से अलग एक भिन्न तरह का उच्च वर्ग मानने लगे, जिससे जनता से इनकी दूरियाँ बढ़ी हैं, अभी भी जो कवि सामान्य रूप से जनता के साथ है उन्हें समझा जा रहा है। दादा माखनलाल चतुर्वेदी की कविता 'पुष्प की अभिलाष' अपनी काव्यात्मकता के साथ-साथ कवि के मन की पवित्रता से उपजी थी। इसलिए हमें आज भी प्रभावित करती हैं। जो बात मन की पवित्रता और आचरण की शुद्धता से प्रकट होगी वह एक बड़े जन समूह को प्रभावित करेगी और जो बात दिल के बजाय दिमाग और आचरण के बजाय आडम्बर से उपजेगी, वह दूर तक नहीं जाएगी।

गाँधी की बात जनता इसलिए नहीं सुनती थी कि वे बहुत बड़े भाषाविद, साहित्यकार और कुशल वक्ता थे उनकी बात इसलिए प्रभावी थी कि, वह आचरण की पवित्रता और मन की गहराई सीधे सरल शंब्दों में प्रकट हुई। आज के उलझे हुए आदमी को सीधी और सरल भाषा की जरूरत है, बहुत जटिल भाषा समझने के दिन लद गए हैं। अगर भारतीय समाज में कविता सम्प्रेषित होनी बन्द होगी तो मान लीजिए कि दुनिया के किसी भी समाज में वह समझी नहीं जा सकेगी, क्योंकि, यही वह समाज हैं, जिसके सभी संस्कार कविता में ही सम्पन्न होते हैं। कम से कम इस समाज की काव्यात्मक समझ पर मुझे तो पूरा भरोसा है। केवल इसकी नब्ज को समझकर लिखकर तो देखिए। भारतीय समाज में कवि कविता को बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त रहा है। कवि को ब्रम्हा तुल्य माना गया है। वह सृष्टा है, यह घोषणा की गई। कवि कविता के द्वारा एक नए संसार का सृजन करता है। तलसी और कबीर आदि इसी श्रेणी में आते हैं। इन्होंने अपनी अवधारणाओं के अनुरूप समाज की संरचना की है। सदियों बीत गए, पर आज तक यह कृतज्ञ समाज इन संत कवियों के उपदेशों के आगे नत-मस्तक है। इनके शब्द मंत्र की तरह हमारे समाज में समझें और आदर के साथ सुने जाते हैं।

इनकी परम्परा में आए आज के कवि इसी भारतीय समाज के साथ न्याय नहीं कर पाए। परिणास्वरूप जनता और कवियों के बीच एक गहरा असन्तुलन पैदा हो गया है। कल्पना के सहारे चमत्कार पैदा किया जा सकता और आचरण के सहारे आदमी के अन्तस को बाँधा जाता है। कविता मनोरंजन के साथ आदमी के अन्दर के संसार को धीरे-धीरे से बदलती है। यह बदलाव आज बन्द है। इसके लिए समाज कम, रचनाकार अधिक जिम्मेदार हैं।


स्वागत योग्य है नागरिकता संशोधन अधिनियम
Support for CAA & NRC

राष्ट्र कभी धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता - 2

मजहब ही सिखाता है आपस में बैर करना

बलात्कारी को जिन्दा जला दो - धर्मशास्त्रों का विधान