विशेष :

जीवात्मा का स्वरूप

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ओ3म् अपाड़् प्राङेति स्वधया गृभीतोऽमर्त्यो मर्त्येना स्योनिः।
ता शश्‍वन्ता विषूचीना वियन्तान्यन्यं चिक्युर्न नि चिक्युरन्यम्॥ ऋग्वेद 1.164.38

शब्दार्थ- जीवात्मा (स्वधया गृभीतः) अपने कर्मों से बद्ध होकर (अपाङ् एति) अत्यन्त नीच गति, नीच योनियों को प्राप्त होता है और (प्राङ् एति) अत्यन्त उत्कृष्ट गति को, उत्कृष्ट योनियों को जाता है (अमर्त्यः) यह अविनाशी आत्मा (मर्त्येन) मरणधर्मा शरीर के साथ (सयोनिः) मिलकर रहता है। (ता) वे दोनों शरीर और आत्मा (शश्‍वन्ता) सदा एक-दूसरे के साथ रहने वाले (विषूचीना) परस्पर विरुद्ध गति वाले (वियन्ता) वियोग को प्राप्त होने वाले हैं। संसारी जीव (अन्यम्) उनमें से एक को, शरीर को (निचिक्युः) भली प्रकार जानते हैं, परन्तु (अन्यम्) दूसरे को (न निचिक्युः) नहीं जानते।

भावार्थ-
1. जीवात्मा जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भोगता है। पापकर्म करने पर जीवात्मा अत्यन्त निकृष्ट कीट-पतंग आदि योनियों में जाता है और पुण्यकर्म करने पर अत्यन्त उत्कृष्ट मानव-देह को प्राप्त करता है।
2. जीवात्मा अविनाशी है, परन्तु यह विनाशी शरीर के साथ रहता है।
3. जीवात्मा और शरीर विरुद्ध गतिवाले हैं। आत्मा चेतन है और शरीर जड़ है।
4. आत्मा का शरीर के साथ संयोग और वियोग होता रहता है। संयोग का नाम जन्म और वियोग का नाम मृत्यु है।
5. संसारी इन दोनों में से शरीर को तो खूब जानते हैं, परन्तु आत्मा को नहीं जानते।

हे संसार के लोगो! आध्यात्मिक पथ के पथिक बनकर आत्मा को जानने का प्रयत्न करो। - स्वामी जगदीश्‍वरानन्द सरस्वती (दिव्ययुग- नवंबर 2012)

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