विशेष :

अनावश्यक वैवाहिक खर्च

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समाज निर्माण की आवश्यकता सर्वत्र अनुभव की जा रही है। हर कोई जनता है कि व्यक्ति और समाज का उज्जवल भविष्य इसी बात पर निर्भर है कि समाज में में श्रेष्ठ परम्पराएँ प्रचलित हों। समाज की जैसी भी स्थिति व् परम्पराएँ होती है, उसी के अनुरूप व्यक्तियों का बनना और ढलना जारी रहता है। यदि हमें ने समाज नए समाज का निर्माण वस्तुतः करना होतो उसके मूल अर्थात् विवाह पर अत्यधिक ध्यान देना होगा। उसमे जो विषयमत, विश्रृंखलता एवं विकृति उत्पन्न हो गई है, उसे सुधारना होगा।

आज जिस ढंग से, जिस आडम्बर अहंकार व तामसी वातावरण में विवाह-शादियाँ होती हैं, उन्हें देखकर किस भी पारकर यह नहीं कहां जा सकता कि यह दो आत्माओं के आत्मसमपर्ण के लिए आयोजित सर्वमघयज्ञ का धर्मानुष्ठान है। अश्लील गीत, गन्दे नाच, पान, बीड़ी, शराब की धूम देखकर उसकी संगति यज्ञ से कैसे बढ़ाई जाए। यह हल्का-फुल्का धर्म कृत्य मानव जीवन की एक साधारण सी आवश्यकता है पर वह इतना खर्चीला और उलझन भरा कदापि नहीं होना चाहिए की आर्थिक दृष्टि से दोनों ही गर्त्त में चले जाएं।

समस्या तो ओर भी भयानक तब सिद्ध होती है जब वर पक्ष की ओर से मोटी रकम दहेज़ के रूप में माँगी जाती है, उसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया जाता है। यह माँग आमतौर पर से इतनी बड़ी होती है कि कमजोर आर्थिक स्थिति कन्या का पिता छाती पर पत्थर रखकर ही उसकी पूर्ति कर सकता है। आज जो लड़के बनकर दहेज़ माँगता है, कल उसे भी अपनी लड़की का विवाह करने पर उसी चक्की पिसना पड़ता है। इस दुर्गति को जानते हुए भी न जाने क्यों हमारी आँखे नहीं खुलती।

कन्या पक्ष वाले भी अपने ढंग से लगभग दहेज़ से मिलती-जुलती घाट चलते हैं। वे चाहते है कि उनके दरवाजे पर बेटे वाले अपनी अमीरी का प्रदर्शन करें ताकि उसे यह शेखी जताने का मौका मिले कि उसकी लड़की कितने अमीर घर में ब्याही गई है। इस प्रकार दोनों ही पक्ष न्यूनाधिक मात्रा में इस पाप के भागीदार होते हैं और विवाह का स्वरुप सब मिलाकर एक प्रकार से सामाजिक दिखावा जैसा बन जाता है। जिसके ह्रदय में देश, धर्म, समाज एवं संस्कृति के प्रति तनिक भी दर्द है, उसे यही सोचने को विवश होना पड़ता है कि इस दिखावे का जितनी जल्दी अंत हो उतना ही अच्छा है। अब समय आ गया है, इस दिशा में ठोस कदम उठाना चाहिए।

उपाय उनके हैं, रास्ते बहुत हैं। आवश्यकता उन पर चलने के लिए प्रयास करने की और ऐसे उदाहरण प्रस्ततु करने की है, जिनका अनुकरण करने के लिए सर्वसाधारण का उत्साह जगाया जा सके। प्रबुद्ध वर्ग का उत्तरदायित्व एवं कर्त्तव्य है कि अपने समय की दुष्प्रकृतियों से जूझने और सत्प्रवर्तियों की प्रतिष्ठापना करने के लिए समय निकला जाए, जिससे अपने समय की इस सबसे कष्टकारक दुष्टप्रवर्ति का उन्मूलन सम्भव हो सके। पहल लडके वाले को करनी चाहिए। यदि अपने माता-पिता सुयोग्य लड़के का विवाह बिना दहेज़ करने को तैयार हों तो लड़की वाले उसका सहज स्वागत करेंगे और जिनकी अर्थीक स्थिति दुर्बल है वे इस सुविधा के लिए वे अपना भाग्य सराहेंगे। युग की यह माँग व पुकार आज की घड़ी में अत्यंत महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है, उसे पूरा करने के लिए हर एक को पूरी तत्परता व निष्ठा के साथ प्रयत्न करना चाहिए।


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