आत्मिक विस्तार
हमारी दुनिया बड़ी होती है, जिससे हम मात्र स्वयं या परिवार के हित साधने तक ही सिमटकर नहीं रह जाते, वरन संपूर्ण संसार को ही अपना परिवार मान उसके कल्याण में जुट जाते हैं। फलस्वरूप रूप संकीर्णता से उदारता की ओर बढ़ चलते हैं। हमारा आत्मिक विस्तार होने लगता है। दान की शुरुआत किसी को कुछ देने से होती है और यह बहुत ही सामान्य-सी क्रिया जान पड़ती है, पर यह सामान्य दिखते हुए भी असामान्य है। ऐसा इसलिए क्योंकि दान व्यक्ति में देने की प्रवृत्ति पैदा करता है, दान देते-देते व्यक्ति में देवत्व की प्रवृति पैदा होने लगती है। जिसकी शुरुआत हमने पुण्य पीने या बदले में कुछ पाने की आशा से शुरू की थी, वह कालांतर में हमारा स्वभाव बन जाता है।
Our world is big, due to which we are not confined to serving the interests of ourselves or the family only, but consider the whole world as our family and get involved in its welfare. As a result, forms move from narrowness to generosity. Our spiritual expansion begins. Charity begins with giving something to someone and it seems to be a very common action, but it is unusual even though it looks normal. This is because charity inculcates the tendency of giving in a person, while giving charity, the tendency of divinity starts in the person. What we started with the hope of drinking virtue or getting something in return, eventually becomes our nature.
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स्वाध्याय की आवश्यकता बार बार पाठ करने से ही सिद्धान्त की जानकारी होती है। सरसरी निगाह से देखने पर कुछ पता नहीं लगता। सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका और संस्कारविधि का अनेक बार गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करना होगा, अन्यथा कमजोरी ही बनी रहेगी। जैसे एक छात्र किसी विषय को ध्यान से नहीं पढता, तो वह विषय उसके लिये दुरूह बना रहता है। कठिन और...